पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५११

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सम्राट ने असंयत हो उन्मत्त की भांति कहा - “ अहा- हा , कैसा सुधा -वर्षण किया भद्र, किन्तु यह क्या सत्य है ? स्वप्न नहीं है, मैं एक पुत्र का पिता हूं ? " " हां देव , आप इस दग्ध - भाग्य सोम के पिता हैं । " “किसने कहा भद्र, क्या मृत्यु के भय से मेरा मस्तिष्क विकृत तो नहीं हो गया है । तूने कहा न पिता ? " " हां देव ! " " तो फिर कह । ” “पिता ! ” “ और कह। " “ पिता ! " " अरे बार - बार कह, बार - बार कह! ” सम्राट् ने सोम को अंक में भर गाढ़ालिंगन किया । सोम ने कहा - “ पूज्य पिता, यह आपका पुत्र सोमप्रभ आपको अभिवादन करता है। " “ सौ वर्ष जी भद्र, सहस्र वर्ष! सम्राट् ज़ार- ज़ार आंसू बहाने लगे । सोम ने कहा - “पिता , अभी एक गुरुतर कार्य करना है । " " कौन - सा पुत्र ?" " माता मातंगी आर्या का सत्कार । " क्या आर्या मातंगी आई हैं ? " " आई थीं , किन्तु चली गईं पिता ! " " चली गईं? मैं एक बार देख भी न सका ! " " देख लीजिए पिता , अभी अवशेष है । " “ अरे , तो .....। " " अभी कुछ क्षण पूर्व मुझे अपनी अश्रु- सम्पदा से सम्पन्न कर और दो सन्देश देकर वह गत हुईं । " “ अश्रु- सम्पदा से तुझे सम्पन्न करके ? " हां , देव ! ” " तो पिता पुत्र के सौभाग्य पर ईर्ष्या करेगा , किन्तु सन्देश , तूने कहा था , दो सन्देश ? " “ एक निवेदन कर चुका । "..... " उसका मूल्य मगध का साम्राज्य - अस्तु , दूसरा कह .... " " देवी अम्बपाली मेरी भगिनी हैं । " सम्राट् चीत्कार कर उठे । सोम ने कहा - “मुझे कुछनिवेदन करना है देव ! " “ अब नहीं , अब नहीं, सोमभद्र, तू मुझे वध कर , शीघ्रता कर! " " देव ! " “ आज्ञा देता हूं रे, यह सम्राट् की आज्ञा है, अन्तिम आज्ञा ! "