गणपति सुनन्द ने कहा - “ भन्तेगण, आपने आयुष्मान् सिंह का अभिप्राय सुना, हम अपनी स्थिति सुदृढ़ रखना पहले चाहेंगे। इसलिए अब प्रश्न है कि शत्रु से सन्धि की जाय या नहीं। " ___ “ऐसी दशा में सन्धि सर्वोत्तम है, विशेषकर जबकि शत्रु अपने हाथ में है तथा सन्धि के नियम भी हमारे ही रहेंगे। सबने एकमत होकर कहा । " तो सन्धि में तीन बातों पर विचार करना है : एक यह कि शत्रु का सैनिक - बल इतना दुर्बल कर दिया जाय कि वह चिरकाल तक हमारे विरुद्ध शस्त्र न उठा सके। " “ सदा के लिए क्यों नहीं ? ” राजप्रमुख ने कहा । “ यह देवताओं के लिए भी शक्य नहीं है, आयुष्मान् ! दूसरे शत्रु यथेष्ट युद्ध- क्षति दे । " तीसरे सुदूर -पूर्वी तट हमारे वाणिज्य के लिए उन्मुक्त रहे। " छन्द लेने पर प्रस्ताव सर्व- सम्मति से स्वीकार हुआ । सन्धि की सब शर्तों पर विचार करने , हस्ताक्षर करने तथा शत्रु से आवश्यक मामले तय करने का अधिकार सिंह को दिया गया । यथासमय सन्धि हो गई। वज्जी - भूमि में इसके लिए सर्वत्र गणनक्षत्र मनाया गया । वैशाली के खण्डहर ध्वजाओं से सजाए गए। भग्न द्वारों पर जलपूरित मंगल कलश रखे गए । रात को टूटी और सूनी अटारियों में दीपमालिका हुई । वैशाली के इस दिग्ध समारोह में भाग नहीं लिया अम्बपाली ने । उनका प्रासाद सजाया नहीं गया , उस पर तोरण - पताकाएं नहीं फहराई गईं और दीपमालिका नहीं की गई । अपितु सप्तभूमि - प्रासाद का सिंह- द्वार और समस्त प्रवेश द्वार बन्द कर दिए गए । समस्त आलोक - द्वीप बुझा दिए गए। उस आनन्द और विजयोत्सव में राग -रंग के बीच देवी अम्बपाली और उसका विश्व -विश्रुत प्रासाद जैसे चिरनिद्रा में सो गया युग - युग के लिए!
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