सेनापति सुमन अश्व पर आरूढ़ होकर चल दिए । एक बड़ी नाव घाट पर आकर लगी । कुछ व्यक्ति उसमें से उतरकर स्कन्धावार में आए। नायक ने भीतर आकर कहा - “ काप्यक आर्य भद्रिक को ला रहे हैं , भन्ते सेनापति ! " _ “ आर्य भद्रिक को ससम्मान ले आओ भद्र , मगध विजय हो गया , बहुत बड़ा कार्य सम्पूर्ण हुआ। ” सिंह ने खड़े आगे- आगे भद्रिक चण्ड और पीछे काप्यक गान्धार ने नग्न खड्ग लिए मण्डप में प्रवेश किया । सिंह ने आगे बढ़कर खड्ग उष्णीष से लगाकर उच्च स्वर से कहा “ महामहिम मागध - महासेनापति आर्य भद्रिक को लिच्छवि सेनापति सिंह ससम्भ्रम अभिवादन निवेदन करता है ! " भद्रिक शान्त भाव से आकर खड़े हो गए। कष्ट और सहिष्णुता की रेखाएं उनके मुखमण्डल पर थीं , परन्तु नेत्रों में वीरत्व और अभय की चमक थी । उन्होंने स्थिर कण्ठ से कहा - “ आयुष्मान् सिंह ! मैं तुम्हें मगध -विजय पर साधुवाद देता हूं , तुम्हारी शालीनता की श्लाघा करता हूं। " “ अनुगृहीत हुआ । आर्य ने आज मुझे गर्वित होने का अवसर दिया है। " ___ “ परन्तु भद्र, मैंने वश - भर ऐसा नहीं किया । मैं पराजित होकर बन्दी हुआ हूं । अब मैं जानना चाहता हूं कि ....। " " अस्थायी सन्धि के नियम ? वे यह हैं । आर्य, मैं समझता हूं , आपको आपत्ति न होगी । ” –सिंह ने तालपत्र का लेख सेनापति के सम्मुख उपस्थित किया । उस पर एक दृष्टि डालकर सेनापति ने कहा - “ तुम उदार हो आयुष्मान् , किन्तु मैं क्या एक अनुरोध कर सकता हूं ? " "मैं शक्ति - भर उसे पूर्ण करूंगा आर्य ! " “ महामात्य वर्षकार की अब हमें अत्यन्त आवश्यकता है। बिना उनके परामर्श के सन्धि -वार्ता सम्पन्न न हो सकेगी । " “ ठीक है आर्य ! " “ और एक बात है ! ” “ क्या आर्य ? ” “ मगध- सेना के बन्दी सैनिकों को उनके शस्त्रों और अश्वों- सहित लौट जाने दिया जाए। " " ऐसा ही होगा , आर्य ! " " धन्यवाद आयुष्मान्, मुझे तुम्हारे नियम स्वीकार हैं । यह मेरा खड्ग है। " उन्होंने खड्ग कमर से खोलकर सिंह के सम्मुख किया । __ “ नहीं- नहीं, वह उपयुक्त स्थान पर है आर्य , मैं विनती करता हूं उसे वहीं रहने दीजिए । " भद्रिक ने खड्ग कमर में बांध, हाथ उठाकर सिंह को आशीर्वाद दिया और दो कदम पीछे हटकर चले गए ; पीछे-पीछे काप्यक गान्धार भी नग्न खड्ग हाथ में लिए । सिंह ने जल्दी से उसी समय कुछ आदेश तालपत्र पर लिख और दूत को दे वैशाली भेज दिया ।
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