" देव , सेनापति उदायि मारे गए। " “ उदायि मारे गए ? सम्राट ने चीत्कार कर कहा । “ और आर्य भद्रिक निरुपाय और निरवलम्ब हैं । वे घिर गए हैं और किसी भी क्षण आत्मसमर्पण कर सकते हैं । ” " अरे , तब तो आयुष्मान् सोमप्रभ और मेरे हाथियों ही पर आशा की जा सकती " भद्र सोमप्रभ ने युद्ध बन्द कर दिया , देव ! " “ युद्ध बन्द कर दिया ? किसकी आज्ञा से ? “ अपनी आज्ञा से देव ! ” – अम्बपाली ने मरते हुए प्राणी के से टूटते स्वर में कहा । सम्राट का सम्पूर्ण अंग थर - थर कांपने लगा। मस्तक का सम्पूर्ण रक्त नेत्रों में उतर आया । उन्होंने खूटी पर लटकता अपना मणि - खचित विकराल खड्ग फुर्ती से उठा लिया और उच्च स्वर से कहा “ यह मगध सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार का सागर -स्नात पूत खड्ग है । मैं इसी की शपथ खाकर कहता हूं कि अभी उस अधम वंचक सोमप्रभ का शिरच्छेद करूंगा। " उन्होंने वेग से तीन बार विजय - घण्ट पर प्रहार किया । सिंहनाद ने नतमस्तक कक्ष में प्रवेश किया । सम्राट ने अकम्पित कण्ठ से कहा - “सिंहनाद, मुझे गुप्त मार्ग दिखा , मैं अभी मागध स्कन्धावार में जाऊंगा। देवी अम्बपाली , भय न करो, मैं अभी एक मुहूर्त में उस कृतघ्न विद्रोही को मारकर तुम्हारे महालय का उद्धार करता हूं। " सिंहनाद ने साहस करके कहा - “किन्तु देव ! " “ एक शब्द भी नहीं, भणे, मार्ग दिखा ! " अम्बपाली पीपल के पत्ते की भांति कांपने लगीं। उन्होंने अर्थपूर्ण दृष्टि से एक ओर देखा। सिंहनाद ने गुप्त गर्भद्वार का उद्घाटन करके कहा - “ इधर से देव! ” सम्राट् उसी उत्तरीय को अंग पर भलीभांति लपेट , उसी प्रकार काकपक्ष को मुकुटहीन खुले मस्तक पर हवा में लहराते हुए गर्भमार्ग में घुस गए। पीछे-पीछेसिंहनाद ने भी सम्राट का अनुसरण किया । जाते - जाते उसने देवी अम्बपाली से होंठों ही में कहा “ देवी , आज इस क्षण सम्राट् या सोमप्रभ दोनों में से एक की मृत्यु अनिवार्य है । अब केवल आप ही इसे रोकने में समर्थ हैं । समय रहते साहस कीजिए। " वह गर्भमार्ग में उतर गया । अपने पीछे पैरों की आहट पाकर सम्राट ने कहा - “ कौन है? " "सिंहनाद देव ! ” " तब ठीक है, तेरे पास शस्त्र है? " " है, महाराज ! ” " इस मार्ग से परिचित है ? " " हां महाराज! ” " तब आगे चल! " " जैसी आज्ञा , देव ! ”
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