पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४८९

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में आ जाता , उसी की चटनी हो जाती। भारतीय युद्ध में सर्वप्रथम इस महास्त्र का प्रयोग किया गया था , जिसकानिर्माण आचार्य काश्यप ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से किया था । इसका रहस्य अतिगोपनीय था । मरे हुए हाथियों , घोड़ों और सैनिकों के अम्बार लग गए । ढहे हुए घरों की धूल -गर्द से आकाश पट गया । यह लौहयन्त्र केले के पत्ते की भांति घरों, प्राचीरों की भित्तियों को चीरता हुआ पार निकल जाता था । इस महाविध्वंसक-विनाशक महास्त्र के भय से प्रकम्पित -विमूढ़ लिच्छवि भट सेनापति सब कोई निरुपाय रह गए । शत सहस्र भट भी मिलकर इस निर्द्वन्द्व महास्त्र की गति नहीं रोक सके। इस लौहास्त्र का सम्बल प्राप्त कर अजेय मागधी सेना विशाल लिच्छवि सैन्य को चीरती हुई चली गई । अब उसकी मार वैशाली की प्राचीरों पर होने लगी । सहस्रों भट धनुषों पर अग्निबाण चढ़ाकर नगर पर फेंकने लगे । महास्त्र ने झील , तालाब और नदी के बांधों को तोड़ डाला , सारे ही नगर में जलप्रलय मच गई । आग और जल के बीच वैशाली महाजनपद ध्वंस होने लगा। लिच्छवि भट प्राणों का मोह छोड़ युद्ध करते - करते कट - कटकर मरने लगे। सोमप्रभ निर्दय , निर्भय दैत्य की भांति महा नरसंहार करता हआ आगे बढ़ने लगा। मागध- सैन्य ने अब बहत मात्रा में योगाग्नि और योगधूम का प्रयोग किया । औपनिषद् पराघात प्रयोग भी होने लगे। मदनयोग , दूषीविषी, अन्धाहक के आक्षेप से शत्रु के सहस्रों हाथी , घोड़े और सैनिक उन्मत्त , बधिर और अन्धे हो गए। चार दण्ड दिन रहते सोमप्रभ वैशाली के कोट - द्वार पर जा टकराए। इसी समय कोसलराज विदूडभ भी अपनी सुरक्षित चमू लेकर वैशाली की परिधि पारकर वैशाली के अन्तःकोट पर आ धमके। उनके सहस्रों भट सीढ़ियां और कमन्द लगाकर प्राचीरों, दुर्गों और कंगूरों पर चढ़ गए । वैशाली का पतन सन्निकट देख , महासेनापति सुमन ने स्त्रियों, बालकों तथा राजपुत्रों को सुरक्षित ठौर पर भेज दिया । इस समय सम्पूर्ण वैशाली धांय - धांय जल रही थी और उसके कोट - द्वार के विशाल फाटकों पर निरन्तर प्रहार हो रहे थे, सेनापति सोमप्रभ हाथ में ऊंचा खड्ग लिए मागध जनों के उत्साह की वृद्धि कर रहे थे। शत्रु-मित्र सभी को यह दीख गया था कि वैशाली का अब किसी भी क्षण पतन सुनिश्चित है ।