पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४८३

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इतना दु: साहस ! इतना असाध्य- साधन! " “प्रिये , स्थिर न रह सका। " “मैं जानती थी देव ! ” " ओह, तो तुम बिम्बसार के मनोदौर्बल्य से अभिज्ञात हो ? " “ मैं प्रतीक्षा कर रही थी । " “मैंने सोचा, अब नहीं तो फिर कभी नहीं, कौन जाने यह युद्ध का दानव बिम्बसार को भक्षण ही कर ले , मन की मन में ही रह जाए। " " शान्तं पापम् ! ” “ किन्तु प्रिये, तुम्हारा प्रबन्ध धन्य है। " “ देव , कोटि - कोटि प्राणों के मूल्य से अधिक मेरे लिए आपका जीवन- धन था । किन्तु शत्रुपुरी में आपका आना अच्छा नहीं हुआ । " _ “ वाह, कैसा आनन्दवर्धक है! प्रिये प्राणसखे आज ही , इस क्षण बिम्बसार के प्राणों में यौवन -दर्शन हुआ है। इस आनन्द के लिए तो कोई भी पुरुष सौ बार प्राण दे सकता है। " ___ " मैं कृतार्थ हुई देव ! ” इतना कह अम्बपाली ने सुवासित मद्य का पात्र भरकर सम्राट के आगे किया । सम्राट ने पात्र में अम्बपाली का हाथ पकड़ उसे खींचकर बगल में बैठा लिया और कहा - “ इसे मधुमय कर दो प्रिये ! ” और उन्होंने वह पात्र अम्बपाली के अछूते होंठों से लगा दिया । इसके बाद वे गटागट उसे पी गए। संकेत पाते ही दासियों ने क्षण में गायन -वाद्य का आयोजन जुटा दिया । कक्ष सुवासित मदिरा की सुगन्ध और सुरंग में सुरभित - सुरंजित हो संगीत - लहरी में डूब गया और उस गम्भीर रात्रि में जब वैशाली में युद्ध की महती विभीषिका रक्त की नदी बहा रही थी , मगध के प्रतापी सम्राट् सुरा - सौन्दर्य के दांव पर शत्रुपुरी में अपने प्राण और अपने साम्राज्य को लगा रहे थे ।