पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४८२

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था । हठात् सामने का पर्दा हटा और उसमें से एक रूप - राशि प्रकट हुई , जिसके बिना यह अलिन्द सूना हो रहा था । उसे देखते ही दोनों आगन्तुकों में से एक तो धीरे - धीरे पीछे हटकर कक्ष से बाहर हो गया , दूसरा व्यक्ति स्तम्भित - सा वहीं खड़ा रह गया । अम्बपाली आगे बढ़ी । वह बहुत महीन श्वेत कापांस पहने थी । वह इतनी महीन थी कि उसके आर- पार साफ दीख पड़ता था । उसमें से छनकर उसके सुनहरे शरीर की रंगत अपूर्व छटा दिखा रही थी । पर यह रंग कमर तक ही था । यह चोली या कोई दूसरा वस्त्र नहीं पहने थी , इसलिए उसकी कमर के ऊपर के सब अंग -प्रत्यंग स्पष्ट दीख पड़ते थे। न जाने विधाता ने उसे किस क्षण में गढ़ा था । कोई चित्रकार न तो उसका चित्र ही अंकित कर सकता था , न कोई मूर्तिकार वैसी मूर्ति ही बना सकता था । _ इस भुवन - मोहिनी की वह छटा आगन्तुक के हृदय को छेदकर पार हो गई । उसके घनश्याम - कुंचित कुन्तल केश उसके उज्ज्वल और स्निग्ध कन्धों पर लहरा रहे थे। स्फटिक के समान चिकने मस्तक पर मोतियों का गूंथा हुआ चन्द्रभूषण अपूर्व शोभा दिखा रहा था । उसकी काली और कंटीली आंखें , तोते के समान नुकीली नाक , बिम्बाफल जैसे दोनों ओष्ठ और अनारदाने के समान उज्ज्वल दांत , गौर और गोल चिबुक बिना ही श्रृंगार के अनुराग और आनन्द बिखेर रहे थे । मोती की कोर लगी हुई सुन्दर ओढ़नी पीछे की ओर लटक रही थी , और इसलिए उसका उन्मत्त कर देने वाला मुख स्पष्ट देखा जा सकता था । वह अपनी पतली कमर में एक ढीला - सा बहुमूल्य रंगीन शाल लपेटे हुए थी । उसकी हंस के समान उज्ज्वल गर्दन में अंगूर के बराबर मोतियों की माला लटक रही थी , तथा गोरी -गोरी कलाइयों में नीलम की पहुंची पड़ी हई थीं । उस मकड़ी के जाले के समान महीन उज्ज्वल परिधान के नीचे सुनहरे तारों की बुनावट का एक अद्भुत घाघरा था जो उस प्रकाश में शत- सहस्र बिजलियों की भांति चमक रहा था । पैरों में छोटी - छोटी लाल रंग की उपानतें थीं , जो सुनहरी फीते से कसी थीं । उस समय कक्ष में गुलाबी रंग का प्रकाश हो रहा था । उस प्रकाश में अम्बपाली का इस प्रकार मानो आवरण - भेदन कर इस रूप -रंग में प्रकट होना आगन्तुक व्यक्ति को मूर्तिमती मदिरा का अवतरण - सा प्रतीत हुआ । रूप - सौन्दर्य , सौरभ और आनन्द के अतिरेक से वह भाव -विमोहित - सा स्तब्ध -निस्पन्द खड़ा रहा। अम्बपाली आगे बढ़ी; उसके पीछे सोलह दासियां एक ही रूप -रंग की , मानो उसी की प्रतिमाएं हों , अर्घ्य- पाद्य लिए आगे आईं । __ अम्बपाली ने आगन्तुक के निकट पहुंच , नीचे झुक , नतजानु हो आगन्तुक का अभिवादन किया , उसके चरणों में मस्तक झुकाया । दासियां भी पृथ्वी पर झुक गईं । आगन्तुक महाप्रतापी मगध - सम्राट् बिम्बसार थे। उन्होंने हाथ बढ़ाकर अम्बपाली को ऊपर उठाया । अम्बपाली ने कहा - “ देव , पीठ पर विराजें ! ” सम्राट ने ऊपर का परिच्छद उतार फेंका। वे रत्नपीठ पर विराजमान हुए । अम्बपाली ने नीचे धरती पर बैठकर सम्राट का अर्घ्य- पाद्य , गन्ध - पुष्प आदि से सत्कार किया ।फिर इसके बाद उसने अपनी मदभरी आंखें सम्राट पर डालकर कहा -“ देव ,