पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४८०

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यहां कोई मनुष्य न था । एक सघन वृक्ष की आड़ में पानी से उचककर एक पुरुष बैठकर सुस्ताने लगा। दूसरा घाट के ऊपर आ चारों ओर सावधानी से इधर - उधर देखने लगा । इसके बाद उसने एक संकेत किया । संकेत सुनते ही दूसरा पुरुष काले लबादे से अपने भीगे हुए शरीर और खड्ग को ढांपकर उसके पीछे-पीछे वृक्षों की आड़ देता हुआ वैशाली के गुप्त द्वार की ओर अग्रसर हुआ ।