“निश्चय सेनापति ! " “ पर प्राण - संकट आता हो तो ? " “ कार्य पूरा होने पर आए तो हानि नहीं , भन्ते! " “ पर पहले ही आया तो ? " “ ऐसा हो ही नहीं सकता , सेनापति ! " " तुम बड़े वीर हो प्रिय , पर काम बहुत भारी है। " “ आप कहिए तो ? " " उस पार धारा चीरकर जा सकोगे ? " इसमें कौन कठिनाई है! वहां जाकर क्या करना होगा , भन्ते ? " “ जल में छिप रहना होगा । ठीक पाटलिग्राम के घाट के नीचे। " " मुझे छिपने के सौ हथकण्डे याद हैं , भन्ते ! " “ पर वहां शत्रु की अनगिनत नावें हैं , सब पर चौकन्ने मागध धनुर्धारी भट हैं । " “ पर शुक को कौन देख पा सकता है, सेनापति ? मैं जल ही जल में डुबकी लगाता जाऊंगा, फिर किसी नाव की पेंदी में चिपक जाऊंगा। बड़ी मौज रहेगी, भन्ते ! " " परन्तु इतना ही नहीं शुक , तुम्हें और भी कुछ करना होगा। " “ और क्या सेनापति ? ” “ ज्यों ही तुम देखो कि शत्रु की नावें भटों से भरी इस पार आने को हैं , तुम्हें हमें संकेत करना होगा । " शुक ने दो उंगलियां मुंह में लगाकर एक तीव्र शब्द किया और कहा - “ इसी तरह शब्द करूंगा, भन्ते ! वे समझेंगे, कोई पानी का पक्षी बोल रहा है। " काप्यक ने हंसकर कहा “ ऐसा ही करो शक ! " फिर उन्होंने अन्धकार को भेदकर अपनी दृष्टि उस पार पाटलिग्राम के पाश्र्व में पड़े मगध- स्कन्धावार की ओर दौड़ाई । फिर उन्होंने कहा- “ तो शुक, अब देर न करो। तुम्हें क्या चाहिए ? " ____ “ कुछ नहीं.....यह मेरे पास है। ” उसने एक विकराल दाव अपनी टेंट से निकालकर दिखाया और छप से पानी में पैठ गया । ___ कुछ देर तक काप्यक उसी साहसी वीर की ओर आशा - भरी दृष्टि से देखते रहे। इसके पीछे उन्होंने चुपचाप गहन वन में प्रवेश किया । एक झाड़ी में थोड़ा स्थान था , उसे स्वच्छ करके दो सैनिक वहां बैठे थे। काप्यक के संकेत पर उन्होंने प्रकाश किया । काप्यक ने कुछ पंक्तियां भूर्जपत्र पर लिखकर मिट्टी की मुहर कर सिंह के पास उल्काचेल भेज दीं । फिर उन्होंने उपनायकों से परामर्श किया, उन्हें आदेश दिए और फिर सब ...। अकस्मात् दूर से वही क्षीण शब्द सुनाई पड़ा । कुछ ठहरकर फिर वही शब्द हुआ । काप्यक तन्मय हो संकेत ध्वनि सुनने लगे , फिर उन्होंने तुरन्त प्रियवर्मन् को संकेत किया । प्रियवर्मन् ने अपने भटों को संकेत किया , सबने सावधान होकर अपने - अपने धनुष पर तीर चढ़ा लिए। वे गंगा -तीर पर घने अंधकार में आंख गड़ा - गड़ाकर देखने लगे । नीरवता ऐसी थी कि प्रत्येक की सांस सुनाई दे रही थी । काप्यक की रणतरियों में भी हलचल हो रही थी , पर यहां भी सब -कुछ नि : शब्द । काप्यक गंगा -तीर के एक सघन वृक्ष की छाया में एक तरी
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