पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४७५

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143 . लघु विमर्श सेनापति सिंह ने युद्धस्थल से लौटकर तुरन्त सम्पूर्ण स्कन्धावार का निरीक्षण किया । फिर घायलों और मृतकों की अविलम्ब व्यवस्था कर घायलों को जल्द - से - जल्द सेवा - केन्द्रों में भिजवाने का प्रबन्ध किया । युद्धबन्दियों तथा शत्रु के घायलों को अनुक्रम से शिविरों में भिजवाने के आदेश दिए । इसके बाद उन्होंने भूर्जपत्र पर युद्ध -विवरण के साथ आगे की योजनाएं भी सेनानायक सुमन के पास भिजवा दीं । फिर उन्होंने सब सेनानायकों को एकत्र कर भावी कार्यक्रम पर विचार -विमर्शकिया। शत्रु की गतिविधि का अनुमान कर नये- नये आदेश दिए। घायल और मृत सैनिकों, नायकों, उपनायकों के स्थान पर नवीनों की नियुक्ति की । स्कन्धावार की सुरक्षा की व्यवस्था और भी दृढ़ की । इसके बाद वे गहन चिन्तामग्न होकर युद्धक्षेत्र के मानचित्र को देखकर कोई योजना बनाने लगे । सब कार्यों से निपटकर उन्होंने स्नान, भोजन और थोड़ा विश्राम किया । इस बीच जल - सेनानायक काप्यक गान्धार ने आकर सूचना दी । दोनों वीर सेनापति इस प्रकार परामर्श करने लगे । सिंह ने कहा - “मित्र काप्यक, मागध सेनापति सोमप्रभ उत्तम सेनानी है। " “ क्यों नहीं , वह भी तो आचार्य बहुलाश्व का अन्तेवासी है! ” काप्यक ने हंसकर कहा । सिंह ने कहा-“यद्यपि आज शत्रु की बहुत भारी हानि हुई है, परन्तु हमारी क्षति भी ऐसी नहीं , जिसकी उपेक्षा की जा सके । ” “ क्या शासानुशास का दर्प दलन करके सिंह आज मागधों से हतोत्साह हुए हैं ? " " नहीं मित्र , परन्तु मैं वस्तुस्थिति की बात कहता हूं। अब वे सम्भवत : कल पाटलिग्राम तीर्थ से गंगा पार कर वैशाली पर आक्रमण करेंगे। निरर्थक प्रकाश युद्ध करके नर - संहार न कराएंगे। ” “ तो मित्र, पाटलिग्राम तीर्थ से गंगा पार करना इतना आसान नहीं है। " " तेरे रहते ! यह मैं जानता हूं मित्र , वैशाली की लाज तेरे हाथ है। " “चिन्ता नहीं मित्र सिंह, वचन देता हूं - मागध गंगा के इस ओर का तट न छू सकेंगे। " “ आश्वस्त हुआ मित्र , क्या तुझे कुछ चाहिए ? " " नहीं मित्र , मैं चाहता हूं , तू विश्राम कर ! " " तो मित्र , एक बात ध्यान में रखना । मागध कदापि दिन में गंगा पार न करेंगे। " " तब तो और अच्छा है, हमें अपनी योजना सफल करने का सुअवसर मिल जाएगा। ” " तो मित्र, अब मैं विश्राम करूंगा। "