“ ऐसा ही हो , नायक ! सिंह ने मानचित्र पर ध्यान करते हुए कहा । फिर सब लोगों ने स्नान - भोजन कर थोड़ा विश्राम किया । पहर दिन रह गया था , जब सिंह ने दक्षिण सैन्य के सेनानियों में से , एक - एक को बुलाकर आदेश देने प्रारम्भ किए । सिंह ने उनके सैन्यबल के सम्बन्ध में सारी बातें पूछी और एक ताल - पत्र पर लिखते गए । सूर्यास्त तक यह काम समाप्त हुआ । स्वच्छ चांदनी रात थी । नायक अभीति ने कहा - “ इस समय गंगा - तट के कितने ही नव - निर्मित दुर्गों का परीक्षण किया जा सकता है । यदि विश्राम की इच्छा न हो तो मैं नाव मंगाऊं । " सिंह ने कहा- “विश्राम की कोई बात नहीं है। नायक , तुम शीघ्र नाव तैयार कराओ। ” नायक अभीति, सिंह और काप्यक तीनों आदमी नाव में जा बैठे । तीर -तीर नाव चलने लगी। सामने गंगा के उस पार पाटलिग्राम में मागध शिविर पड़ा था । उसमें जलती हुई आग का प्रकाश मीलों तक फैला दीख रहा था । नाव धीरे - धीरे गंगा -मिही -संगम पर दिधिवारा की ओर जा रही थी । नाविक सब सावधान और अपने कार्य में दक्ष थे। गंगा में व्यापारिक बड़ी - छोटी नावें और माल से भरी नावें तैर रही थीं । किसी-किसी नाव में दीपक का क्षीणप्रकाश भी प्रकट हो रहा था । गंगा-किनारे के सब दुर्गों में पूर्ण निस्तब्धता थी । न प्रकाश था , न शब्द । अभीति की इस सम्बन्ध में कड़ी आज्ञा थी । दिधिवारा तक कुल पांच दुर्ग वज्जियों के थे। सेनानायकों ने सभी का निरीक्षण किया । नाव को घाट तक लगते देखते ही प्रहरी पुकारकर संकेत करता । नाव पर से नायक संकेत करता, प्रहरी तत्काल दुर्गाध्यक्ष को सूचना देता और ये नाविक चुपचाप नाव से उतरकर दुर्ग का निरीक्षण कर आते तथा अध्यक्ष को आवश्यक आदेश दे आते। घाट से दुर्ग तक के मार्ग गुप्त और घूम - घुमौअल बनाए गए थे। अपरिचित व्यक्ति का वहां पहुंचना शक्य न था । सैनिक नावें इस प्रकार छिपाकर रखी थीं कि उस पार से तथा इस पार से भी उन्हें देख पाना शक्य न था । विशाल मर्कट - ह्रद को एक छोटी - सी टेढ़ी नहर द्वारा नदी से मिला दिया गया था । आवश्यकता पड़ने पर सब नावें सैनिकों सहित क्षण भर में गंगा की बड़ी धारा में पहुंच सकती थीं । यद्यपि यह निरीक्षण बिना सूचना के हो रहा था , परन्तु प्रत्येक प्रहरी सावधान एवं सजग था । पहर रात गए सेनानियों की नौका दिधिवारा के दुर्ग में जा पहुंची। यह औरों से बड़ा था । यहां की व्यवस्था भी उत्तम थी । दोनों नवीन नायक सैनिकों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर रहे थे। __ पौ फट रही थी , जब ये सेनानी उल्काचेल पहंचे। पीछे लौटकर सिंह ने कहा नायक अभीति , मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूं मित्र, तुमने यथेष्ट व्यवस्था की है । " नायक ने हंसकर सेनापति का अभिवादन किया । इसके बाद सबने विश्राम किया । दिन भर जयराज के चर शत्रु - सेना का संवाद लाते रहे। उससे विदित हो गया कि बिम्बसार अभी सेनापति भद्रिक की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिए मगध -सम्राट् अभी युद्ध प्रारम्भ करने का निर्णय नहीं कर पाए हैं । रात को फिर तीनों सेनानी गंगा के नीचेमिही और गंगा के संगम पर स्थित दुर्गों को देखने चले । यह एक रात में समाप्त नहीं हो सकता था । वे दिन - भर किसी दुर्ग में विश्राम
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