पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४६

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धीरे-धीरे शयन-कक्ष में गया। देखा अपना परिजन। दासियां और सखियां इधर-उधर पड़ी सो रही थीं। किसी की बगल में वीणा थी, किसी के गले में मृदंग, किसी के बाल बिखरकर फैल गए थे, किसी के मुंह से लार निकल रही थी, कोई मुंह फैलाए, कोई मुख को विकराल किए बेसुध पड़ी थी।

यश ने कहा—"यही वह मोह है जिसे उस श्रमण ने त्याग दिया। पर वह सम्पदा क्या है, जो उसने पाई है?" उसने एक बार फिर परिजन को सोते हुए देखा—फिर कहा—'अरे, मैं सन्तप्त हूं, मैं पीड़ित हूं!!!'

उसने अपना सुनहरा जूता पहना और प्रथम घर के द्वार की ओर, फिर नगर-द्वार की ओर चल दिया। घोर अंधेरी रात थी। शीतल वायु बह रही थी, जनपद सो रहा था। आकाश मेघाच्छन्न था। यश अपना सुनहरा जूता पहने कीचड़ में अपने अनभ्यस्त पदचिह्न बनाता आज कदाचित् अपने जीवन में पहली बार ही पांव-प्यादा उस पथ पर जा रहा था, जो मृगदाव ऋषिपत्तन की ओर जाता है।

गौतम उस समय भिनसार ही में उठकर खुले स्थान में टहल रहे थे। उन्होंने दूर से कुलपुत्र को अपनी ओर आते देखा तो टहलने के स्थान से हटकर आसन पर बैठे। तब कुलपुत्र ने निकट पहुंचकर कहा—"हाय, मैं संतप्त हूं! हाय, मैं पीड़ित हूं!"

गौतम ने कहा—"यश, यह तथागत असंतप्त है। अपीड़ित है। आ बैठ। मैं तुझे आनन्द का अमृत पान कराऊंगा।" कुलपुत्र ने प्रसन्न होकर कहा—"भन्ते, क्या आप असंतप्त हैं, अपीड़ित हैं?" वह जूता उतारकर गौतम के निकट गया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।

गौतम ने तब यश को आनुपूर्वी कथा कही और कामवासनाओं का दुष्परिणाम, उपकार-दोष और निष्कामता का माहात्म्य बताया। उन्होंने कुलपुत्र यश को भव्य-चित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादितचित्त, आह्लादितचित्त और प्रसन्न देखा। तब उसे दुःख का कारण, उसका नाश और नाश के उपाय बताए। जैसे कालिमारहित शुद्ध वस्त्र अच्छा रंग पकड़ता है उसी प्रकार कुलपुत्र यश को उसी आसन पर उसी एक उपदेश से—"जो कुछ उत्पन्न होने वाला है वह सब नाशवान् है" यह धर्मचक्षु प्राप्त हुआ।

यश कुलपुत्र की माता ने भोर होने पर सुना कि यश कुलपुत्र रात को शयनागार में सोए नहीं और प्रासाद में उपस्थित भी नहीं हैं, तो वह पुत्र-प्रेम से विकल हो श्रेष्ठी गृहपति के पास गई। गृहपति सेट्ठि कुलपुत्र के सुनहले जूतों के चिह्न खोजता हुआ ऋषिपत्तन मृगदाव तक गया। वहां श्रमण गौतम को आसीन देखकर कहा—"भन्ते, क्या आपने कुलपुत्र यश को देखा है?" गौतम ने कहा—"गृहपति, बैठ, तू भी उसे देखेगा।" गृहपति ने हर्षोत्फुल्ल हो भगवान् गौतम को प्रणाम किया और एक ओर बैठ गया। भगवान् ने आनुपूर्वी कथा कही और गृहपति सेट्टि को उसी स्थान पर धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ।

उसने कहा—"आश्चर्य भन्ते! आश्चर्य! जैसे कोई औंधे को सीधा कर दे, ढके को उघाड़ दे, भूले को रास्ता बता दे, अन्धकार में तेल का दीपक रख दे, जिससे आंख वाले रूप देखें, उसी भांति भगवान् ने धर्म को प्रकाशित कर दिया। वह मैं, भगवान् की शरण जाता हूं, धर्म की शरण जाता हूं, संघ की शरण जाता हूं। आप मुझे अंजलिबद्ध उपासक ग्रहण करें।"

तथागत ने जलद-गम्भीर स्वर में कहा—"स्वस्ति सेट्ठि गृहपति, संसार में एक तू ही