135. चण्डभद्रिक प्रबल - प्रतापी मगध- सेनापति चण्डभद्रिक के शौर्य, तेज और समर - कौशल की गाथाएं उन दिनों सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में गाई जाती थीं । उस युग में उनका जैसा धीर , वीर , तेजस्वी और दूरदर्शी सेनापति दूसरा भारत में न था । उन्होंने वैशाली के महत्त्व और सत्ता पर भली - भांति विचार करके भागीरथ प्रयत्न से मागधी सेना का सर्वथा नये ढंग पर संगठन किया था । चम्पा , कोसल और मथुरा - अवन्ती के अभियान में जो मागधी सेना को क्षय और हानि हो गई थी , वह उन्होंने सब बात की बात में पूरी कर ली थी और अब राजगृह के घर घर में वैशाली - अभियान की ही चर्चा थी । लोग अमात्य वर्षकार के असाधारण निष्कासन को भी इस तरह भूल गए थे । एक दिन सम्राट और सेनापति ने अतिगोपनीय मंत्रणा की । सम्राट ने कहा - “ आर्य भद्रिक , यदि शिशुनाग -वंश के मस्तक पर चक्रवर्ती- छत्र नहीं आरोपित हुआ , तो इस वंश में बिम्बसार का जन्म लेना ही व्यर्थ हुआ और आपका मगध सेनानायक होना भी । " सेनापति ने हंसकर कहा “ सो तो है देव , देखिए पृथ्वी पर हिमालय से दक्षिण समुद्र पर्यन्त अर्थात् उत्तर दक्षिण में हिमालय और समुद्र के बीच का , तथा एक सहस्र योजन तिरछा, अर्थात् पूर्व पश्चिम की ओर एक सहस्र योजन विस्तारवाला , पूर्व- पश्चिम - समुद्र की सीमा से भक्त देश चक्रवर्ती क्षेत्र कहाता है । इस चक्रवर्ती क्षेत्र में अरण्य , ग्राम्य , पार्वत , औदक , भौम , सम विषम जो भूभाग हैं उनका निरूपण इस मानचित्र में देखिए; और विचार कीजिए कि अब करणीय क्या है। प्रथम उत्तर - दक्षिण प्रदेश पर दृष्टि डालिए । अमात्य ने देव की अभिलाषा को चरितार्थ करने की ही यह योजना बनाई थी , कि दक्षिण समुद्र को मगध साम्राज्य यदि स्पर्श करे , तो उसे सर्वप्रथम चण्ड प्रद्योत , अवन्ति नरेश और उसके मित्र मथुरापति अवन्तिवर्मन का पराभव करना चाहिए । रोरुक सौवीर पर भी अधिकार होना चाहिए । परन्तु देव का आग्रह वैशाली - अभियान पर ही है और अमात्य विनियोजित हैं , तब अभी वैशाली से ही निबट लिया जाए , परन्तु देव से एक निवेदन करूंगा। यदि वैशाली के गणतन्त्र को छिन्न- भिन्न करना है, तो उसके संगी - साथी मल्ल - शाक्य, कासी - कोलिय और दूसरे गणसंघों के गुट्ट को भी आमूल तोड़- फोड़ देना होगा तथा मगध - राजधानी राजगृह से हटाकर या तो वैशाली ही को चक्रवर्ती- क्षेत्र का केन्द्र बनाना होगा , या फिर पाटलिग्राम को मागध राजधानी बनने का सौभाग्य प्रदान करना होगा। बिना ऐसा किए इन केन्द्रस्थ गणगुट्टों को हम तोड़ - फोड़कर आमूल नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि इसके लिए मात्र सामरिक चेतना ही यथेष्ट नहीं है । वहां के जनपद की मनोवृत्ति बदलने की भी बात है; क्योंकि आर्यों की भांति वहां भी छिद्र मुख्य हैं । छिद्र यह कि इन गणराज्यों में गणप्रतिनिधि लिच्छवि ,
पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४५३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।