पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४४७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

133 . पलायन जयराज और काप्यक गान्धार ने पलायन की योजना पहले ही स्थिर कर ली थी । गणदूत के वेश में जिस दिन जयराज ने सम्राट से प्रकट भेंट की , उससे प्रथम ही रात्रि के समय चुपचाप गुप्त भाव से एकाकी गान्धार काप्यक महत्त्वपूर्ण चित्र , मानचित्र, लेख और सूचनाएं लेकर राजगृह से प्रस्थान कर गए थे। मार्ग में सुरक्षा और व्यवस्था उन्होंने यथावत् कर ली थी । शेष सैनिक और राजपरिच्छेद की व्यवस्था यह की गई थी कि वह प्रकट में प्रस्थान का प्रदर्शन तो करे , परन्तु राजगृह के बाहर जाते ही वे विघटित हो जाएं तथा छद्मवेश में राजगृह लौट आएं और राजगृह में गुप्त रूप में रहें । इस योजना के कारण वैशाली के गणदूत और उसकी छोटी - सी सैन्य तथा सेवक मण्डली कहां लोप हो गई, इसका किसी को कुछ पता ही नहीं लगा। गान्धार काप्यक को भी कोई नहीं पा सका। जयराज सम्राट से मिलने के तत्क्षण बाद अपने डेरे पर गए ही नहीं । वे तुरन्त ही सबकी आंख बचा राजगृह से चल दिए । पूर्व- योजना के अनुसार उनका वह कृषक-बालक मित्र उनसे पहले ही जा चुका था और राजगृह से आठ योजन दूर एक चैत्य में उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । इस प्रकार जयराज और उनके संगी- साथी , जिन्हें जाना था , वे पूर्व नियोजित योजना से सकुशल राजगृह से निकल गए । जिन्हें रहना था वे प्रच्छन्न भाव में रहे । अभयकुमार मोटी बुद्धि का तथा कुछ दीर्घसूत्री आदमी था ; वह सैनिक प्रथम था , राजनीतिज्ञ उसके बाद । वह राजकुमार था । अत : अनुशासित भी न था । उससे इस अगत्य के कार्य में अनेक त्रुटियां रह गईं । फिर भी उसने वैशाली के इन सफल भगोड़ों को जीवित या मृत पकड़ लाने के संकल्प से चुने हुए सैनिक लेकर प्रस्थान किया । सीमान्त -रक्षक ने भी चारों ओर सेना फैला दी । जयराज को तुरन्त ही इस व्यवस्था का पता लग गया । वह यथासंभव युद्ध से बचना चाह रहे थे और शीघ्र से शीघ्र सुरक्षित मागध राज्य की सीमा से निकल जाना चाहते थे। फिर भी उनकी एक - दो बार पीछा करने वालों से मुठभेड़ हो ही गई, पर जयराज ने युद्ध नहीं किया । पलायन ही करना श्रेयस्कर समझा । किन्तु अभयकुमार ने उनके मार्ग को घेर ही लिया और जयराज प्रति क्षण किसी गम्भीर परिणाम की आशंका करने लगे।