आयुष्मान् महानाभ और अश्वजित् ने भी प्रणिपात कर निवेदन किया, "भगवन्, हमने भी सत्य को जान लिया, हमें भी उपसम्पदा मिले, प्रव्रज्या मिले!" बुद्ध ने उन्हें ब्रह्मचर्य-पालन का उपदेश देते हुए कहा––"भिक्षुओ, सब भौतिक पदार्थ अन-आत्मा हैं। यदि इनकी आत्मा होती तो ये पीड़ादायक न होते। वेदना भी अन-आत्मा है। अभौतिक पदार्थ विज्ञान भी अन-आत्मा है क्योंकि वह पीड़ादायक है। तब, क्या मानते हो भिक्षुओ! रूप नित्य है या अनित्य?"
"अनित्य है भन्ते!"
"जो अनित्य है, वह दुःख है या सुख?"
"दुःख है भन्ते!"
"जो अनित्य, दुःख और विकार को प्राप्त होनेवाला है, क्या उसके लिए यह समझना उचित है कि यह पदार्थ मेरा है, यह मैं हूं, यह मेरी आत्मा है?"
"नहीं भन्ते?"
"तब क्या मानते हो भिक्षुओ, जो कुछ भी भूत-भविष्य-वर्तमान सम्बन्धी, भीतर या बाहर, स्थल या सूक्ष्म, अच्छा या बुरा, दूर या नज़दीक का रूप है, वह न मेरा है, न मैं हूं, मेरी आत्मा है––ऐसा समझना चाहिए?"
"सत्य है भन्ते!"
"और इसी प्रकार वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान भी, भिक्षुओ!"
"सत्य है भन्ते, हमने इस सत्य को समझ लिया।"
"तो भिक्षुओ! विद्वान् आर्य को रूप से, वेदना से, संज्ञा से और विज्ञान से उदास रहना चाहिए। उदास रहने से इन पर विराग होगा, विराग से मुक्ति, मुक्ति से आवागमन छूट जाएगा भिक्षुओ! आवागमन नष्ट हो गया, ब्रह्मचर्य-वास पूरा हो गया। करना था सो कर लिया। अब कुछ करना शेष नहीं।"
भाषण के अन्त में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने तथागत को प्रणिपात किया और कहा––"भगवन्, हमारा चित्त मलों से मुक्त हो गया है।"
"तब भिक्षुओ, अब इस लोक में कुल छः अर्हत हैं। एक मैं और पांच तुम।" इतना कहकर तथागत वृक्ष के सहारे पीठ टेककर अन्तःस्थ हो गए। भिक्षु-गण प्रणिपात कर भिक्षाटन को गए।