पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४३८

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129.प्रतीहार - पत्नी दूसरे दिन जयराज भड़कीला परिधान धारण कर अश्व पर आरूढ़ हो , संग में कृषक - तरुण धवल्ल को ले सुखदास वणिक के निवास पर जा पहुंचे। सेवक सहित इस प्रकार एक भद्र पुरुष को देख सुखदास ने उनका सत्कार करके कहा - “ भन्ते , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ? ” जयराज ने इधर - उधर देखते हुए हंसकर कहा - “ मित्र , मैं किसी अच्छी वस्तु का क्रय करना चाहता हूं । सुना है, तू बड़ा प्रामाणिक व्यापारी है । " ___ " भन्ते , मेरे पास बहुत उत्तम जाति के अश्व हैं और बहुमूल्य चीनांशुक के जोड़े हैं । सम्राट युद्ध-व्यवस्था में रत हैं , उन्हें अश्वों की आवश्यकता है , इसी से मैं और मेरे ग्यारह मित्र भी अश्व लाए हैं । हमारे पास सब मिलाकर एक लाख अश्व हैं । ये सब सम्राट के लिए हैं भन्ते ! ” " इतर जनों को भी तूने माल बेचा है मित्र! " " परन्तु मैं खुदरा बिक्री नहीं करता, थोक माल बेचता हूं। " “ थोक ही सही ; तब कह, पांच सौ सैन्धव अश्व और एक सहस्र जोड़े चीनांशुकों का तू क्या मूल्य लेता है ? " । सुखदास वणिक सन्देह और भय से जयराज का मुंह ताकने लगा । जयराज ने कहा - “ कह मित्र , अभी कल ही तूने एक सौदा किया है। तू बड़ा व्यापारी अवश्य है, परन्तु एक ही दिन में इस छोटे- से सौदे को तो नहीं भूला होगा। ” “ आप क्या राजपुरुष हैं भन्ते ? " " परन्तु मैं राज - काज से नहीं आया हूं, अपने ही काम से आया हूं। " " तो भन्ते , आपको क्या चाहिए , कहिए । मेरा कर्तव्य है कि आपकी आज्ञा का पालन करूं । " “ यह अच्छा है। सस्ते में क्रय करना और लाभ लेकर अधिक मूल्य में बेचना व्यापार की सबसे बड़ी सफलता है। " “लाभ ही के लिए व्यापार किया जाता है भन्ते ! " “ यह बुद्धिमानी की बात है । इधर लिया उधर दिया , ठीक है न ? " “बिल्कुल ठीक है भन्ते , लाभ मिलना चाहिए । " । “ यह बुद्धिमानी की बात है, तो अभीष्ट वस्तु मिलने पर मैं मुंहमांगा दाम देता हूं , मेरे पास सुवर्ण की कमी नहीं है मित्र! " " आप जैसे ही राजकुमारों के हम सेवक हैं भन्ते! " " तो मूल्य कह दिया मित्र! " " काहे का ? "