पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४३३

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"प्रिये, तुम मुझे सदैव क्षमा करती रहना और सहन करती जाना । " “ अरे , यह तो मेरा अनुरोध था प्रियदर्शन ! " " तब तो और भी अच्छा है । हम दोनों एक ही नाव पर जीवन -यात्रा कर रहे हैं । " “ जो कदाचित् विषाद, निराशाओं और आंसुओं से परिपूर्ण है। " " तो क्या किया जा सकता है प्रिये! प्रियतमे , जीवन से पलायन भी तो नहीं किया जा सकता। ” " न , नहीं किया जा सकता। सोम प्रियदर्शन , एक याचना करूं ? " सोम ने अम्बपाली के दोनों हाथ पकड़कर कहा “ यह अकिंचन सोम तुम्हारा ही है , प्रिये अम्बपाली ! " " तो प्रियदर्शन , मुझे सहारा देना , जब - जब मैं स्खलित होऊं तब - तब । ” उनके होंठ कांपे, फिर उन्होंने टूटते अवरुद्ध स्वर में कहा - “ यह मत भूलना सोमभद्र कि मैं एक असहाय - दुर्बल नारी हूं , तुम पुरुष की भांति मेरी रक्षा करना, मैं तुम्हारी किंकरी, तुम्हारी शरण हूं। " अम्बपाली सोम के पैरों में लुढ़क गईं । सोम ने उन्हें उठाकर अंक में भर लिया और अपने तप्त - तृषित , आग के अंगारों के समान जलते हुए होंठ उनके शीतल कम्पित होंठों पर रख दिए । अम्बपाली मूर्छित होकर सोम के अंक में बिखर गईं।