“ अब भी ऐसा ही है देवी अम्बपाली ! ” सोमप्रभ ने हंसते -हंसते आकर कहा । अम्बपाली ने सोमप्रभ को सुवेशित भद्र नागरिक वेश में नहीं देखा था । आज देखकर क्षण - भर को उनकी प्रगल्भता लुप्त हो गई । सोम ने कहा “ आप मुझ पर कुपित तो नहीं हैं देवी ! ” । “ कुपित होकर तुम्हारे जैसे समर्थ का कोई क्या कर सकता है भद्र ? " “ असमर्थ होने पर भी कुछ जन समर्थ होते हैं । ” " ऐसे कितने जन हैं प्रियदर्शन ? ” " केवल एक को मैं जानता हूं आज्ञा पाऊ तो कहूं ! " “स्वेच्छा से कहना हो तो कहो। " " तो सुनो , मैंने एक व्यक्ति देखा है जो निरातंक, सालाद , सोल्लास हो स्वर्ण- रत्न भण्डार के द्वार उन्मुक्त करके दस्युओं को लूट लेने के लिए अभिनन्दित करता है। " " रहने दो प्रिय, आओ, कुछ खाओ-पिओ! ” दोनों बैठ गए । अवसर पाकर नाउन पान लेने खिसक गई। अम्बपाली ने सोम का हाथ पकड़कर कहा " तुम ऐसे समर्थ, ऐसे सक्षम, कामचारी, दिव्य शक्तियों से ओतप्रोत ऐन्द्रजालिक कौन हो प्रियदर्शन? " “ यही कहने को मैं तुम्हें यहां ले आया हूं अम्बपाली! " " तो कह दो प्रिय, मैंने तो तुम्हारे कण्ठ- स्वर से ही तुम्हें पहचान लिया था । " “ यह मैंने तुम्हारे इन नेत्रों में पढ़ लिया था । " " तुम्हारी नेत्रों से पढ़ने की विद्या से मैं परिचित हूं , पर अब कहो। " “ मैं मागध हूं प्रिये , मेरा नाम सोमप्रभ है। " अम्बपाली ने जैसे तप्त अंगार स्पर्श कर लिया । सोम ने कहा " क्या मागधों को तुम सहन नहीं कर सकतीं ? " " नहीं प्रिये, नहीं । " " इसका कारण? " “ अकथ्य है। " " अब भी ! " " मृत्यु के मूल्य पर भी प्रियदर्शन सोम, यदि तुम अम्बपाली को क्षमा कर सको तो कर देना । ” उनके बड़े- बड़े नेत्र आंसुओं से गीले हो गए । “ प्रिये अम्बपाली, क्या मैं तुम्हारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता हूं ? " “ नहीं प्रियदर्शन , नहीं । अम्बपाली निस्सहाय -निरुपाय है । " विषादपूर्ण मुस्कान सोमप्रभ के मुख पर फैल गई । उन्होंने एक लम्बी सांस ली । उसके साथ अनेक स्मृतियां वायु में विलीन हो गईं। ____ “ प्रियदर्शन सोम , क्या मैं तुम्हारा कुछ प्रिय कर सकती हूं, प्राणों के मूल्य पर भी ? "
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