परन्तु दस्यु क्या बिल्कुल असावधान हैं ? ” उसने अचल भाव से आग की ओर निश्चल देखते हुए दस्युओं की ओर देखा। फिर पीछे खड़े हुए दस्युराज को मुंह फेरकर देखा। वह उसी प्रकार नग्न खड्ग लिए खड़े थे। इतने ही में लिच्छवि सेना ने एकबारगी ही फैलकर दस्यु शिविर पर धावा बोल दिया । स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल का रक्त उबलने लगा । उन्होंने दस्यु बलभद्र की ओर देखा , जो उसी भांति निस्तब्ध खड़ा था । " क्या इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है! किस भरोसे यह निश्चिंत यहां खड़ा है ? " स्वर्णसेन ने हाथ मलते हुए कहा - “ खेद है, हमारे पास शस्त्र नहीं हैं ? " लिच्छवि सैन्य ने वेग से धावा बोल दिया । परन्तु यह कैसा आश्चर्य है कि दस्यु सम्मुख नहीं आ रहे हैं , जो दस्यु सैनिक इधर - उधर वहां घूमते दीख रहे थे वे भी अब लुप्त हो गए हैं । लिच्छवि सेना यों ही शून्य में अपने भाले और खड्ग चमकाती हुई चिल्ला रही थी । वह जैसे वायु से युद्ध कर रही हो । “ यह सब क्या गोरखधन्धा है मित्र ? ” – स्वर्णसेन ने सूर्यमल्ल का कन्धा पकड़कर कहा। सूर्यमल्ल की दृष्टि दूसरी ओर थी । उनकी आंखें पथरा रही थीं और वाणी जड़ थी । उसने भरे हुए स्वर में कहा “ सर्वनाश? साथ ही उसने एक ओर उंगली उठाई । स्वर्णसेन ने देखा - काली नागिन की भांति काले वस्त्र पहने दस्यु - सैन्य एक कन्दरा से निकलकर लिच्छवि - सैन्य के पिछले भाग में फैलती जा रही है। दूर तक इस काली सेना के अश्वारोही घाटी में बिखरे हुए हैं । देखते - ही - देखते लिच्छवि - सैन्य का उसने समस्त पृष्ठ भाग छा लिया और जब वह सेना विमढ़ की भांति दल बांधकर तथा सम्मख एक भी शत्र न पाकर ठौर -ठोर पर जलती हुई आग के चारों ओर घूम - घूमकर तथा हवा में शस्त्र घुमा घुमाकर चिल्ला रही थी , तभी दस्यु - सैन्य ने , जैसे कोई विकराल पक्षी अपने पर फैलाता है, अपने दायें - बायें पक्षों का विस्तार किया । देखते - ही - देखते लिच्छवि - सैन्य तीन ओर से घिर गई । सम्मुख दुर्गम - दुर्लंघ्य पर्वत था । परन्तु लिच्छवि - सैन्य को कदाचित् आसन्न विपत्ति का अभी आभास नहीं मिला था । सूर्यमल्ल के होंठ चिपक गए और शरीर जड़ हो गया । स्वर्णसेन के अंग से पसीना बह चला । __ आग के उजाले के कारण लिच्छवि- सैन्य दस्यु- दल को बहुत निकट आने पर देख पाया । थोड़ी ही देर में मार - काट मच गई और दस्युओं के दबाव से सिकुड़कर लिच्छवि जलती हुई आग की ढेरियों में गिरकर झुलसने लगे । हाहाकार और चीत्कार से आकाश हिल गया । स्वर्णसेन ने कहा - “भन्ते बलभद्र, इस महाविनाश को रोकिए। यह नर -संहार है, युद्ध नहीं है। " " तो मित्र, तुम बिना शर्त आत्मसमर्पण करते हो ? " " हम निरुपाय हैं भन्ते बलभद्र, दया करो! " “ तो मित्र सूर्यमल्ल , तुम जाकर युवराज का यह आदेश अपनी सेना को सुना आओ और सेनानायक को यहां मेरे निकट ले आओ। "
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