पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४२८

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125. मधुवन में दस्यु बलभद्र आगे, देवी अम्बपाली उनके पीछे, स्वर्णसेन और सूर्यमल्ल उनसे भी पीछे, तथा पांच दस्यु खड्ग - हस्त उनके पीछे; इस प्रकार वे वैशाली के शून्य राजपथ को पारकर , वन - वीथी में होते हुए , उत्तर रात्रि में मधुवन उपत्यका में पहुंच गए। अम्बपाली दस्युराज से बात करना चाह रही थीं ; परन्तु दस्यु चुपचाप आगे बढ़ा जा रहा था , मार्ग में अन्धकार था । अम्बपाली एक सुखद भावना से ओतप्रोत हो गईं। उनके मानस नेत्रों में कुछ पुराने चित्र अंकित हुए। वह होठों ही में कहने लगीं, यदि इसी समय एक बार फिर सिंह आक्रमण करे और मुझे उधर पर्वत - शृंग पर स्थित कुटीर में एक बार अवश नृत्य करना पड़े तो कैसा हो ! उसने आवेश में आकर अपना अश्व बढ़ाया । अश्व को दस्युराज के निकट लाकर कहा “ भन्ते , हमें कब तक इस भांति चलना पड़ेगा ? " " हम पहुंच चुके देवी ! ” दस्यु ने कहा । फिर एक संकेत किया । कहीं से एक दस्यु काले भूत की भांति निकलकर सम्मुख उपस्थित हुआ । दस्यु ने मन्द स्वर से कहा " साम्ब, सब यथावत् ही है न ? " " हां भन्ते! " " तब ठीक है, तू अपना कार्य कर । " काला भूत चला गया । दस्यु ने अब पर्वत पर चढ़ना आरम्भ किया । पहाड़ी बहुत ऊंची न थी । चोटी पर चढ़कर सब लोग यथास्थान खड़े हो गए । सूर्यमल्ल और स्वर्णसेन ने भयभीत होकर देखा, सम्मुख उस टेकरी के दक्षिण पाश्र्व की उपत्यका में दूर तक स्थान स्थान पर आग जल रही थी । उस जलती आग के बीच में , आगे-पीछे बहुत - से दस्यु अश्व पर सवार हो इधर से उधर आ - जा रहे हैं । सबका सर्वांग काले वस्त्र से आवेष्टित है । सूर्यमल्ल ने धीरे - से निकट खड़े हुए युवराज स्वर्णसेन से कहा - “ यह तो दस्यु - सैन्य -शिविर प्रतीत होता है! दीख पड़ता है, जैसे दस्युओं का दल चींटियों के दल के समान अनगिनत है। ” एक विचित्र प्रकार का अस्फुट शब्द - सा सुनकर स्वर्णसेन ने टेकरी के वाम पाश्र्व में घूमकर देखा । उधर से एक सुसज्जित अश्वारोही सैन्य धीरे - धीरे सावधानी से इस तथाकथित दस्यु शिविर की ओर बढ़ रहा था । उसके शस्त्र इस अंधेरी रात में भी दूर जलती आग के प्रकाश में चमक रहे थे। इस सैन्य को धीर गति से आगे बढ़ते देख स्वर्णसेन ने प्रसन्न मुद्रा में उंगली से संकेत किया । सूर्यमल्ल ने हर्षित होकर कहा “ यही हमारी सेना है, दस्युओं के शिविर पर अब आक्रमण हुआ ही चाहता है।