पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४२७

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इस बात पर विचार नहीं करते । " “ यह क्या चाण्डाल मुनि का वचन है ? " " नहीं भन्ते , प्रभंजन नापित गुरु का । मैं खड्ग - हस्त होकर झूठ नहीं बोलता । " और बातचीत नहीं हुई। दोनों वीर असाधारण कौशल से युद्ध करने लगे। ऐसे भी क्षण आए जब जयराज को प्राणों का भय आ उपस्थित हुआ । पर एक अवसर पर प्रभंजन का पैर फिसल गया । उसका उठा हुआ खड्ग लक्ष्यच्युत हुआ और दूसरे ही क्षण उसके कण्ठ पर जयराज का भरपूर खड्ग पड़ा, जिससे उसका मस्तक कटकर और लुढ़ककर दूर जा गिरा। मस्तक कटने पर भी प्रभंजन का रुण्ड कुछ समय तक खड्ग घुमाता रहा । उस एकान्त रात में जनशून्य चैत्य में रक्त से भरी भूमि में रक्त से चूता हुआ खड्ग हाथ में लिए जयराज ने छिन्न मस्तक रुण्ड को हवा में खड्ग ऊंचा किए अपनी ओर दौड़ता देखा तो वे भय से नीले पड़ गए । इसी क्षण प्रभंजन का कबंध भूशायी हो गया । जयराज अब वहां एक क्षण भी न ठहर उसी के वस्त्रों से खड्ग का रक्त पोंछ राजगृह के मार्ग पर एकाकी ही अग्रसर हुए । उस समय वह भय और साहस के झूले में झूल रहे थे ।