पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४२६

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उस धूर्त काणे गुप्तचर को प्रेत की भांति अपने पीछे लगा देख जयराज क्रोध से पागल हो गए , परन्तु उन्होंने उठकर उस कपट मुनि का सत्कार करके कहा - " भदन्त , भोजन मैं कर चुका, आहार शेष नहीं है । क्या स्वर्ण दूं ? " “ नहीं उपासक! मैं स्वर्ण नहीं छूता, हाथ से रांधकर खाता भी नहीं । " " तो दु: ख है भदन्त ! तुम किसी गृहस्थ से भोजन ले आओ। " “ या निराहार ही सो रहूं ? जैसा तू कहे उपासक! “जिसमें भदन्त अपना धर्म समझें। ” जयराज कक्ष में जा , दीपक एक कोने में रख , भूमि पर बिछौना बिछा सो गए। कुछ देर काणा मुनि उस क्षपणक के साथ धर्मचर्चा करता रहा । फिर वह भी वहीं सो गया । जब जयराज ने दोनों को सोया समझा, तो झांककर उन्हें देखा । वे युक्ति से उसके कक्ष का द्वार रोककर सोए थे। जयराज ने समझ लिया - “ दोनों , यह क्षपणक भी , गुप्तचर ही हैं । उन्होंने भलीभांति कक्ष की दीवारों, छतों और द्वार को देखा । घर पुराना था और द्वार सड़ा हुआ । आक्रमण होने पर रक्षा के योग्य नहीं था । परन्तु उन्होंने सोचा कि ये दो ही हैं , तब तो मैं ही यथेष्ट हूं । उन्होंने आवश्यकता होने पर उस धूर्त काणे को जान से मार डालने का दृढ़ संकल्प कर लिया । उन्होंने स्वर्ण से भरी थैली अपने कण्ठ में लटका ली । खड्ग नग्न करके निकट रख लिया। उतारे हुए वस्त्र फिर से पहन लिए । इसके बाद द्वार की भलीभांति परीक्षा करके उन्होंने दीप बुझा दिया । दीप बुझाकर वे नि : शब्द बिछौने से उठकर द्वार से कान लगाकर बैठ गए। थोड़ी ही देर में काणा मुनि उठकर बैठ गया । क्षपणक भी उठ बैठा। क्षपणक दो उत्तम बड़े -बड़े खड्ग छिपे स्थान से उठा लाया । जयराज यह सब देख बिस्तरे पर जा सोने का नाटक करते हए वेग से खर्राटे भरने लगे। आखेट को सोया हुआ समझकर दोनों खड्ग लेकर द्वार के निकट आ खड़े हुए । किसी पूर्व-निश्चित विधि से उन्होंने नि : शब्द द्वार खोल डाला । द्वार खुलते ही जयराज बिछौने से उठकर द्वार के पीछे आड़ में छिप गए । आगे काणा और पीछे क्षपणक दोनों नि : शब्द आगे बढ़े । काणे के तनिक आगे बढ़ जाने के बाद क्षपणक वहीं ठिठककर , काणा बिछौने के निकट क्या कर रहा है, यह देखने लगा । इस अवसर से लाभ उठाकर जयराज ने एक भरपूर हाथ खड्ग का क्षपणक के मोढ़े पर फेंका और क्षपणक बिना एक शब्द किए बीच से दो टूक होकर गिर पड़ा । काणा नापित खड़ग हाथ में ले घूमकर खड़ा हो गया । जयराज ने कहा - " भदन्त , यहां तो बहुत अन्धकार है, तुम्हारा साथी तो निर्वाण- पद को पहुंच गया । अब तुम बाहर आओ। वहां चन्द्रमा का क्षीण प्रकाश है। पर मैं समझता हूं, तुम्हारे निर्वाण के लिए यथेष्ट है । " नापित ने कहा - “ भन्ते, ऐसा ही हो ! ” बाहर आकर दोनों घोर युद्ध में रत हुए । कोई भी जीवित प्राणी वहां उनका साक्षी न था । जयराज ने कहा - “ प्रभंजन, तू खड्ग चलाने में उतना ही प्रवीण है, जितना छद्मवेश धारण करने में । परन्तु आज तेरी यहीं मृत्यु है । " “ जीवन और मृत्यु तो भन्ते , आने- जाने वाली वस्तु है। जो गुप्तचर कार्य में रत हैं , वे