पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४२५

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जयराज ने भोजन तैयार होने पर भोजन करने को हाथ बढ़ाया , इसी समय काणे चाण्डाल मुनि ने आगे बढ़कर कहा __ “ आयुष्मानो , मैं जन्मत : चाण्डाल हूं। ब्रह्मचर्य - व्रत मैंने धारण किया है। यम नियमों का विधिवत् पालन करता हूं । मैं रांधकर नहीं खाता । अपने बचे हुए आहार में से थोड़ा मुझे दो । ” उस धूर्त काणे नापित गुप्तचर को अपने सिर पर उपस्थित देखकर जयराज का माथा ठनका। उन्होंने सोचा, ब्राह्मण महामात्य की सहस्र आंखें हैं , सहस्र भुजाएं हैं । उसकी दृष्टि से बचकर कुछ नहीं किया जा सकता । कैसे यह काणा नापित इस समय यहां उपस्थित हो गया ! किन्तु शेष सार्थवाहजनों ने ससम्भ्रम उठकर काणे मुनि का बहुत - बहुत स्वागत सत्कार किया और विविध भावभंगी दिखाकर कहा - “ आइए मुनि , आइए भदन्त , यह आसन है, हमारा आज का भोजन ग्रहणकर हमें कृतार्थ कीजिए! ” जयराज पर अब सार्थवाहजनों की वास्तविकता भी प्रकट हो गई । निस्सन्देह ये सब मागध गुप्तचर थे। उन्होंने मन की चिन्ता मन ही में छिपाकर हंसकर उस छद्मवेशी काणे मुनि के सत्कार में साथियों का योग दिया । काणा विविध सेवा- सत्कार से सन्तुष्ट हो , धार्मिक कथा कहकर उन्हें सम्बोधित करने लगा । जयराज अपनी आत्मरक्षा के लिए योजना स्थिर करने लगे । उन्होंने सोचा निस्सन्देह आज एक बड़ी योजना का सामना करना पड़ेगा । उन्होंने मन - ही - मन कर्तव्य स्थिर किया और साथियों से कहा __ "मित्रो, मैं एक अश्व खरीदना चाहता हूं , क्या यहां मिलेगा ? " “ कैसे कहें भन्ते , हम तो सब नवागन्तुक हैं । ” " परन्तु कोई एक मेरे साथ बस्ती में चले , तो अश्व देखा जाए। " सार्थवाहों ने दृष्टि- विनिमय किया । एक ने उठकर कहा - “ मैं चलता हूं भन्ते ! दोनों गांव में चक्कर काटने और अश्व ढूंढ़ने लगे । ढूंढ़ते -ढूंढ़ते वे कोटपाल के घर के निकट पहुंचे। वहां पहुंचकर जयराज ने कहा - “ मित्र , यह कोटपाल का घर है। क्यों न इससे सहायता ली जाए ! " ___ साथी हिचकिचाया , परन्तु उसे सहमत होना पड़ा । कोटपाल के निकट जाकर जयराज ने अश्व खरीदने में उसकी सहायता मांगी। कोटपाल के पास एक अड़ियल टटू था । उसकी बहुत - बहुत प्रशंसा करके उसने वह टटू जयराज के गले मढ़ दिया । जान बूझकर जयराज ने टटू पसन्द कर लिया । टटू की चाल की परीक्षा करने और पान्थागार से सुवर्ण ले आने के बहाने जयराज उस व्यक्ति को कोटपाल के निकट बैठाकर तथा “ अभी मुहूर्त भर में लौटकर आता हूं " कहकर वहां से टटू ले , नि : शंक जिस तीव्र गति से जाना शक्य था , राजगृह के मार्ग पर दौड़ चले । सूर्यास्त तक वे चलते गए । टटू अड़ता था , परन्तु उसे विशेष बाधा न होती थी । रात होते -होते जयराज एक दूसरे ग्राम के निकट पहुंचे। वहां एक चैत्य में एक क्षपणक रहता था । उसकी अनुमति से उन्होंने वहीं रात काटने का विचार किया । क्षपणक थोड़ा धन पाकर सन्तुष्ट हो गया । आहार से निवृत्त होकर जयराज ज्यों ही शयन की व्यवस्था कर रहे थे कि वही काणा उनके निकट पहुंचा। पहुंचकर कहा - “ मैं चाण्डाल कुल का ब्रह्मचारी हूं , अष्टांग यम -नियम का विधिवत् .....। "