124 . एकाकी जयराज ने साहस किया । वे लोमड़ी की भांति चक्कर काटकर अगले गांव की ओर बढ़े । वे जानते थे, वह ग्राम बड़ा था तथा वहां ठहरने की भी सुविधाएं थीं । ये ग्राम मल्लों और कोलों के थे। इससे जयराज को यह भी आशा थी कि आवश्यकता होने पर नगरपाल या ग्राम - जेट्ठक उनकी सहायता कर सकेगा । मार्ग में एक निविड़ वन पड़ता था । रात अंधेरी थी और जयराज के पास अश्व भी न था । अन्धकार और भय का परस्पर सम्बन्ध है , जयराज एक जीवट के पुरुष थे। कार्यगुरुता समझ उन्होंने प्रत्येक मूल्य पर आगे चले जाना ही ठीक समझा। वे नग्न खड्ग हाथ में लिए गहन वन में घुस गए। सम्पूर्ण रात्रि उनको चलते ही व्यतीत हुई। थकान , प्यास और भूख जब असह्य हो गई, तब उन्होंने एक वृक्ष का आश्रय ले शेष रात काटी । कुछ देर विश्राम करने से उन्हें थोड़ा सुख मिला। सूर्योदय से कुछ पूर्व ही वे फिर चल पड़े । थोड़ी ही देर में उन्हें राजमार्ग दीख पड़ा । तीन ओर से तीन मार्ग आकर मिले थे। निकट ही वह ग्राम था । ग्राम में आहार - आश्रय पाने की आशा से शीघ्र -शीघ्र चलने लगे। इसी समय एक सार्थवाह का साथ हो गया । इसमें सब मिलाकर छ: पुरुष , चार अश्व और तीन टाघन थे। ये मैरेय के कुप्यक लेकर राजगृह जा रहे थे। जयराज इनसे बात ही कर रहे थे कि चार और मनुष्य इस मण्डली में आ मिले । सार्थवाहों ने कहा - “ ये अपने ही जन हैं , पीछे रह गए थे। " जयराज को सन्देह हुआ , परन्तु वह उन्हीं के साथ बातें करते हुए चलने लगे । उन्होंने अपने को एक वस्त्र -व्यवसायी बताया । इस पर उनमें से एक उनके लम्बे खड्ग की ओर देखकर खिलखिलाकर हंस पड़ा । दो दण्ड दिन चढ़ते - चढ़ते वे सब उस ग्राम में जा पहुंचे। ग्राम सम्पन्न और बड़ा था । उसमें पक्की अटारियां थीं । भद्रवसन जन भी थे। खाद्य -हाट भी थी । नगर के बाहर ही एक पान्थागार था । उसी में सबने विश्राम किया । सबके साथ मिलकर जयराज भी खाने- पीने की व्यवस्था में लग गए। निकट ही एक छोटी - सी नदी थी । वहां जाकर उन्होंने स्नान किया , वस्त्र धोए, फिर भोजन बनाया । साथी सार्थवाह भी इधर -उधर फैलकर खाने की खटपट में लगे । परन्तु उनका व्यवहार सन्देहप्रद था । जयराज ने देखा , वे अत्यन्त गुप्त भाव से उन्हीं पर दृष्टि दिए हैं । उन्हें भी सन्देह हुआ कि सम्भवत : वे किसी आगन्तुक की प्रतीक्षा कर रहे हैं । सन्देह बढ़ता ही गया और जयराज नग्न खड्ग पास रख भोजन बनाने लगे । उनके खड्ग को देखकर जो हंसा था , उसने दिल्लगी से कहा - “ भन्ते , यह क्या बात है ? आप भात भी क्या खड्ग से ही खाते हैं ? " जयराज ने हंसकर कहा, “नहीं मित्र, परन्तु कुत्ते -बिल्ली का भय तो है ही । " " ओह, तो इसीलिए नग्न खड्ग निकट रख भोजन बना रहे हैं । " " इसी से मित्र! " सार्थवाहजनों ने कुटिल मुस्कान डाली ।
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