" तुम्हारा तृषित प्रेमी हूं प्रिये, निकट आओ और मुझे तृप्त होकर आज मद्य पिलाओ। ” उसने अपने हाथों से पात्र भरकर कुण्डनी की ओर बढ़ाते हुए कहा “ सम्पन्न करो प्रिये! ” कुण्डनी आधा मद्य पी गई और विह्वल भाव से आगन्तुक की गोद में लुढ़क गई । उसकी सुप्त - लुप्त वासना जाग्रत हो गई । उसने देखा , इस मृत्युञ्जय पुरुष पर उसका प्रभाव नहीं है । न जाने कहां से आज की कालरात्रि में उसके विदग्धभाग्य और असाधारण जीवन को , जिसके विलास में केवल मृत्यु विभीषिका ही रहती रही है, यह गूढ़ पुरुष आ पहुंचा है । उसने अंधाधुन्ध मद्य ढाल -ढालकर स्वयं पीना और पुरुष को पिलाना प्रारम्भ किया । अंतत : अवश हो आत्मसमर्पण के भाव से वह अर्धनिमीलित नेत्रों से एक चुम्बन की प्रार्थना - सी करती हुई उसकी गोद में लुढ़क गई । यह दृष्टि उन दृष्टियों से भिन्न थी जो अब तक मृत्यु - चुम्बन देते समय वह अपने आखेटों पर डालती थी । मदिरा के आवेश में उसके उत्फुल्ल अधर फड़क रहे थे। उन्हीं फड़कते और जलते हुए अधरों पर मदिरा से उन्मत्त नागर ने अपने असंयत होंठ रख दिए । परन्तु यह चुम्बन न था , प्राणाकर्षण था । एक विचित्र प्रभाव से अवश होकर कण्डनी के होठ आप- ही - आप खल गए . उसके श्वास का वेग बढ़ता ही गया । शरीर और अंग निढाल हो गए, देखते - ही - देखते कुण्डनी के चेहरे पर से जीवन के चिह्न लोप होने लगे। शरीर में रक्त का कोई लक्षण न रह गया और वह कुछ ही क्षणों में मृत होकर उस मृत्युञ्जय पुरुषसत्त्व की गोद में लुढ़क गई । तब उसके मृत शरीर को भूमि पर एक ओर फेंककर तृप्त होकर भोजन किए हुए पुरुष के समान आनन्द और स्फूर्ति से व्याप्त वह पुरुष निश्चित चरण रखता हुआ उस तथाकथित नागपत्नी - वेश्या भद्रनन्दिनी के आवास से बाहर आ , एक मुट्ठी सुवर्ण प्रहरियों , दौवारिकों तथा दण्डधरों के ऊपरफेंक वाड़वाश्व पर चढ़ अन्धकार में लोप हो गया ।
पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४१७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।