पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४१६

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नागर ने तभी मद्यपात्र कुण्डनी के होठों से लगा दिया । कुण्डनी गटागट संपूर्ण मद्य पीकर हंसने लगी। नागर ने कहा - “ मेरे लिए एक बूंद भी नहीं छोड़ा प्रिये ! " __ " उस पात्र में यथेष्ट है , तुम पियो भद्र ! " " उस पात्र में क्यों ? तुम्हारे अधरामृत -स्पर्श से सुवासित सम्पन्न इसी पात्र में पिऊंगा, दो मुझे। " “ यह पात्र तो नहीं मिलेगा । " “ वाह , यह भी कोई बात है ? " “ यही बात है भन्ते , ” कुण्डनी ने वह पात्र एक ओर करते हुए कहा । “ समझ गया , तुम मुझ पर सदय नहीं हो प्रिये, मुझे आह्लादित करना नहीं चाहतीं । " “ उसके लिए तो मैं बाध्य हूं भन्ते ! " " तो दो हला, वही पात्र भरकर, उसे फिर से उच्छिष्ट करके , उसे अपने अधरामृत की सम्पदा से सम्पन्न करके । ” । " भन्ते , आप समझते नहीं हैं । " " अर्थात् मैं मूढ़ हूं ! " “ यदि मैं यही कहूं ? " “ तो साथ ही वह पात्र भी भरकर दो तो क्षमा कर दूंगा । " “नहीं दूंगी तब ? " " तो क्षमा नहीं करूंगा। " “ क्या करोगे भन्ते ? " " अधरामत पान करूंगा। " कुण्डनी सिर से पैर तक कांप गई। पर संयत होकर बोली - “ बहुत हुआ भन्ते , शिष्ट नागर की भांति आचार कीजिए। " " तो वह पात्र दो प्रिये! कुण्डनी ने क्रुद्ध हो पात्र भर दिया । “ अब इसे उच्छिष्ट भी करो! ” । कुण्डनी ने होठों से छू दिया और धड़कते हृदय से परिणाम देखने लगी। नागर ने हंसते -हंसते पात्र गटक लिया । खाली पात्र कुण्डनी को देते हुए कहा - “ बहुत उत्तम सुवासित मद्य है , और दो प्रिये ! ” कण्डनी का मंह भय से सफेद हो गया । पृथ्वी पर ऐसा कौन जन है, जो उस विषकन्या के होठों से छुए मद्य को पीकर जीवित रह सके ! परन्तु इस पुरुष पर तो कोई प्रभाव नहीं हुआ । उसने कांपते हाथों से पात्र भरा , एक घुट पिया और नागर की ओर बढ़ा दिया , नागर ने हंसते -हंसते पीकर खाली पात्र फिर कुण्डनी की ओर बढ़ा दिया और एक हाथ उसके कण्ठ में डाल दिया । उसे हटाकर कुण्डनी भयभीत हो खड़ी हो गई । वह सोच रही थी कौन है यह मृत्युञ्जय ! नागर ने कहा - “ रुष्ट क्यों हो गईं प्रिये ! " " तुम कौन हो भन्ते ? "