पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४१५

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“किन्तु मैं बैठ नहीं सकती। " " तब नृत्य करो। ” “ आप भद्र हैं , किन्तु आपका व्यवहार अभद्र है। " “ यह तो प्रिये, मैं तुमसे कह सकता हूं। " "किस प्रकार ? " “मैंने तुम्हारा शुल्क दे दिया , आज रात तुम मेरी वशवर्तिनी हो । मैं जिस भांति चाहूं, तुम्हारे विलास का आनन्द प्राप्त कर सकता हूं। " " तो आप खड्ग की नोक चमकाकर विलास - सान्निध्य प्राप्त करेंगे? " नागर हंस पड़ा । उसने खड्ग एक ओर फेंककर कहा “ ऐसी बात है तो यह लो प्रिये , परन्तु मेरा विचार था कि खड्ग से तुम आतंकित होनेवाली नहीं हो । ” कुण्डनी समझ गई कि आगन्तुक कोई असाधारण पुरुष है। उसने कहा - “ भन्ते, यदि आप बलात्कार ही किया चाहते हैं तो आपकी इच्छा! ” । " बलात्कार क्यों प्रिये, जितना अधिकार है, उतना ही बस। " । " तो भद्र, क्या आप पान करेंगे ? " “मैं सब कुछ करूंगा प्रिये ! आज की रात्रि महाकाल - रात्रि है। तुम्हारी जैसी विलासिनी के लिए एकाकी रहने योग्य नहीं। फिर आज मैं बहुत प्रसन्न हूं। अब मैं तुम्हारे सान्निध्य में और भी प्रसन्न होना चाहता हूं। " कुण्डनी विमूढ़ की भांति आगन्तुक का मुंह ताकने लगी । फिर उसने मन का भाव छिपाकर हंसकर कहा - “ आप तो अद्भुत व्यक्ति प्रतीत होते हैं । " " क्या सचमुच ? " " नहीं तो क्या झूठ! ” उसने दासी को पान -पात्र लाने का संकेत किया । फिर नागर से कहा - “ तो आप बैठिए भन्ते ! " सेट्ठिपुत्र सोपधान आराम से बैठ गया । उसने हाथ खींचकर कुण्डनी को निकट बैठाते हुए कहा " तुम तो भुवनमोहिनी हो सुन्दरी! " “ ऐसा? " कुण्डनी ने व्यंग्य से हंस दिया और पान-पात्र बढ़ाया । " इसे उच्छिष्ट कर दो प्रिये! ” कुण्डनी ने शंकित नेत्रों से नागर को देखा, फिर कुछ रूखे स्वर में कहा “नहीं भन्ते , ऐसा मेरा नियम नहीं है। " " ओह, विलास में नियम- अनियम कैसा प्रिये! जिसमें मुझे आनन्द लाभ हो , वही करो प्रिये ! ” " तो आप आज्ञा देते हैं ? " “ नहीं प्रिये, विनती करता हूं। " नागर खिलखिलाकर हंस पड़ा। उस हास्य से अप्रतिहत हो छद्मवेशिनी कुण्डनी आगन्तुक को ताकने लगी । वह सोच रही थी - क्या यह मूढ़ अकारण ही आज मरना चाहता