122 . प्राणाकर्षण उसी गम्भीर रात्रि में अर्धरात्रि व्यतीत होने पर किसी ने भद्रनन्दिनी के द्वार पर डंके की चोट की । प्रहरी शंकित भाव से आगन्तुक को देखने लगे । आगन्तुक देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक था । वह मोहक नागर वेश धारण किए वाड़वाश्व की वल्गु थामे मुस्करा रहा था । उसने सुवर्ण भरी हुई दो थैलियां प्रहरी पर फेंककर कहा- एक तेरे लिए, दूसरी तेरी स्वामिनी के लिए । आगत का वेश, सौंदर्य, अश्व और उसकी स्वर्ण - राशि देख प्रहरी , प्रतिहार , द्वारी जो वहां थे, सभी आ जुटे और कर्तव्य -विमूढ़ की भांति एक - दूसरे को देखने लगे । सेट्टिपुत्र ने कहा - " क्या कुछ आपत्ति है भणे ? " । “ केवल यही भन्ते , कि स्वामिनी आजकल किसी नागरिक का स्वागत नहीं करतीं। " " इसका कारण क्या है मित्र ? " “ युद्ध की विभीषिका तो आप देख ही रहे हैं , राजाज्ञा है । " " परन्तु मैं किसी की चिन्ता नहीं करता; तू मेरी आज्ञा से मुझे अपनी स्वामिनी के निकट ले चल । ” “किन्तु भन्ते.....! " " क्या मैंने तुझे शुल्क और उत्कोच दोनों ही नहीं दे दिए हैं ? " “दिए हैं भन्ते , यह आपका सुवर्ण है । " " तब मंत्र पास एक और वस्तु है, देख ! ” यह कहकर उसने खड्ग कमर से निकाली । खड्ग देख और उससे अधिक नागरिक की दृढ़ मुद्रा देखकर प्रहरी -प्रतिहार भय से थर - थर कांपने लगे । उसके प्रधान ने कहा - “ भन्ते , हमारा अपराध नहीं है, हम स्वामिनी के अधीन हैं । " ___ “मैं तेरी स्वामिनी का स्वामी हूं रे! सेट्ठिपुत्र ने कहा और उन्हें खड्ग की नोक से पीछे धकेलता हआ ऊपर चढ़ गया । इस पर एक प्रतिहार ने दौड़कर मार्ग बताते हुए कहा - " इधर से भन्ते , इधर से । " नग्न खड्ग लिए एक तरुण सुन्दर नागरिक को आते देख दासियां भय - शंकित हो पीछे हट गईं। नागर हंसता हुआ कुण्डनी के सम्मुख जा खड़ा हुआ । कुण्डनी ने किंचित् कोप से कहा " आपको राजनियम की भी चिन्ता नहीं है भन्ते ? " " नहीं सुन्दरी , मुझे केवल अपनी ही चिन्ता रहती है। " “किन्तु मैं आपका स्वागत नहीं कर सकती । " । " ओह प्रिये, मैं इस थोथे शिष्टाचार की परवाह नहीं करता, बैठो तुम। "
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