121 . अप्रत्याशित महारासायनिक कीमियागर गौड़पाद जिस समय देश -विदेश के वट्कों को रसायन के गुह्य - गहन तत्त्व समझा रहे थे और अजर - अमर होने के मूल सिद्धान्तों की गूढ़ व्याख्या कर रहे थे, तभी उन्हें हठात् एक अप्रत्याशित कण्ठ -स्वर सुनाई दिया । शताब्दियों पूर्व श्रुत -विश्रुत अप्रत्याशित कण्ठ - स्वर सुनकर आचार्य गौड़पाद चमत्कृत हुए । उन्होंने आंख उठाकर देखा कि सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक भद्रवसन धारण किए सम्मुख खड़ा मुस्करा रहा है । आचार्य के दृष्टि -निक्षेप करते ही सेट्टिपुत्र की आंखों से एक विद्युत्प्रभा निकल आचार्य को आन्दोलित कर गई। उन्हें फिर वही अप्रत्याशित, शताब्दियों पूर्व श्रुत कण्ठस्वर सुनाई दिया “ सोऽहं सोऽहं गौड़पाद ! " एक चुम्बकीय आकर्षण के वशीभूत होकर गौड़पाद भ्रान्त हो दौड़कर सेट्ठिपुत्र के चरणों में लकड़ी के कुन्दे की भांति गिर गए । ___ युवक सेट्ठिपुत्र ने लाल -लाल उपानत से अपना कमनीय चरण निकाल अंगुष्ठ के नख से आचार्य का भूपतित मस्तिष्क छूकर कहा “ उत्तिष्ठ ! " ___ गौड़पाद उठकर बद्धांजलि हो स्तवन करने लगे । वटुक आश्चर्य से मूढ़ बने खड़े रहे और यह अघटित घटना देखने लगे । सेट्ठिपुत्र ने हाथ उठाकर वटुकों को वहां से चले जाने का संकेत किया । भय , विस्मय और आश्चर्य से हतबुद्धि वटुक वहां से भाग गए। एकान्त होने पर सेट्ठिपुत्र ने एक आसन पर बैठकर गौड़पाद को भी सामने बैठने का आदेश दिया । दोनों में परिष्कृत संस्कृत में बातें होने लगीं। यहां हम अपनी भाषा में लिखेंगे । गौड़पाद ने कहा " देवाधिदेव यहां ? " “ तूने क्या देखा नहीं था ? " " देखा था देव ! ” " तो आया क्यों नहीं? " “ सन्देह में रहा देव ! " “सोचता था अब मैं नहीं रहा ? " " नहीं देव , यही विचारता रहा – देव यहां क्यों ? " “ क्या वैशाली मेरे लिए अगम्य है रे ? ” " देव के लिए ब्रह्माण्ड गम्य है परन्तु वैशाली का भाग्योदय क्यों ? " “ यह भण्ड कृतपुण्य कालिकाद्वीप से मेरा बहुत - सा रत्न - भण्डार और वाड़व अश्व हरण कर लाया है। "
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