मत डालो। " सेट्रि ने बहुत ऊंच- नीच दिन देखे थे। उसने भी जब देखा कि घर में सब- कुछ ठीक ठाक है, तो कुछ कहना - सुनना ठीक नहीं समझा , वह पुत्र और वधू के अंग - संस्कार, स्नान आदि की सुविधा देने के विचार से अपने कक्ष में चला गया । पीठमर्दकों , अवमर्दकों और सेवकों द्वारा सेवित स्नान - वसन - भूषण से सज्जित सेट्टिपुत्र जब प्रासाद के बाहर अपने कक्ष में आया , तब सब वयस्कों ने उसका सस्मित प्रीति सम्मोदन किया । कुछ ने संकेत से रात्रि का हालचाल पूछा। उनमें से जो रात की विभीषिका से अवगत थे, उन्होंने संकेत से सेट्टिपुत्र से रात की बात पूछने से निषेध किया । सेट्टिपुत्र ने केवल मन्द मुस्कान ही से मित्रों के प्रश्नों का उत्तर दिया , परन्तु उसकी दृष्टि में कुछ विचित्रता सभी ने लक्ष्य की । एक ने कहा - “मित्र , क्या इतना आसव ढाल लिया ? " दूसरे ने कहा - " नहीं - नहीं रे, जागरण का प्रभाव है। कह मित्र , सुख से रात बीती ? " अब सेट्टिपुत्र ने मुंह खोला, उसने कहा - “ वड़वाश्व । " यह शब्द सुनकर अब समुपस्थित चौंक उठे । बिल्कुल अपरिचित स्वर था , उसका घोष भी अमानुष था , जैसे सुदूर पर्वत - श्रृंगों को चीरकर कोई ध्वनि आई हो । मित्रगण सेट्टिपुत्र के मुंह की ओर देखने लगे । उसने एक बार फिर उसी भांति वड़वाश्व कहा और उठ खड़ा हुआ । उसकी रुखाई और चेष्टा ऐसी थी , जैसे वह किसी को नहीं पहचानता हो , अथवा वह उन सबकी उपस्थिति ही से अज्ञात हो । सभी एक - दूसरे के मुंह की ओर देखने लगे, पर सेट्ठिपुत्र उठकर कक्ष से बाहर चल दिया । दो - एक पाश्र्वद पीछे दौड़े । उसके चलने का ढब भी निराला था । पाश्र्वदों ने समझा कि सेट्रिपत्र ने बहत मद्य ढाल ली है , इसी से पैर डगमगा रहे हैं । वह कहीं गिर न जाए, इसी से एक ने उसे थाम लिया ! उसे संकेत से निवारण करके उसने उसी स्वर में फिर कहा - वड़वाश्व । __ इधर जब से छायापुरुष की विभीषिका फैली थी तथा भ्रमण- काल में एक बार छायापुरुष ने उसे छू लिया था ; तब सेट्टि कुमार का वड़वाश्व पर वायुसेवनार्थ भ्रमण रोक लिया गया था । आज अकस्मात् ही अतर्क्स रीति से वड़वाश्व की इच्छा इस आग्रह से व्यक्त करने पर सेवक विमूढ़ हो गया । एक बात और थी , सेट्ठिपुत्र में पूर्व का मार्दव -विनय - शील संकोच न था , एक अभूतपूर्व दबंगपन और दुर्धर्ष वेग उसकी वासना - शक्ति का उसके नेत्रों से प्रवाहित हो रहा था । सेवक उस आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सका, वह अश्व लाने को दौड़ गया । दूसरा सेवक भयभीत होकर गृहपति को सूचित करने दौड़ गया । गृहपति सेट्ठि दौड़ा आया , उसने पुत्र को भ्रमण के लिए जाने का निषेध किया , पर सेट्ठिपुत्र ने मुस्कराकर गृहपति की ओर देखा । उस विलक्षण दृष्टि से सेट्टि घबरा गया । वह सोचने लगा - क्या मेरा पुत्र उन्मत्त हो गया है? यह कैसी दृष्टि है ? इतने ही में सेट्ठिपुत्र पिता की उपस्थिति की अवहेलना करके अश्व की ओर चल दिया । सेवक अश्व ले आया था , एक अभूतपूर्व लाघव से सेट्टिपुत्र अश्व पर चढ़ गया और द्रुत गति से उसने अश्व छोड़ दिया । ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ था । पुत्र का यह परिवर्तन कैसा है? क्या उसने रात अधिक मद्य पी है ? या कोई और बात है ? छायापुरुष की विभीषिका मन में होते हुए भी
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