स्वर्ण दे सकता हूं । " __ _ गृहपति ने कहा - “ तो तेरा स्वागत है मित्र , वहां गवाट में और भी दो पारग्रामिक टिके हैं , वहीं तू भी विश्राम कर! वहां स्थान यथेष्ट है । आहार्य मैं तुझे दूंगा । स्वर्ण की कोई बात ही नहीं है। ” __ “ तेरा जय रहे गृहपति ! ” ग्रामीण ने कहा और धीरे - धीरे गवाट में चला गया । गवाट के प्रांगण के एक ओर छप्पर का एक ओसारा था । वहां दो पुरुष बैठे बातें कर रहे थे! उन्हीं के निकट जाकर उसने कहा - “ स्वस्ति मित्रो ! मैं भी पारग्रामिक हूं आज रात - भर मुझे भी आपकी भांति यहीं विश्राम करना है। " " तो तेरा स्वागत है मित्र, बैठ । ” दोनों में से एक ने कहा। " परन्तु उन्होंने परस्पर नेत्रों में ही एक गुप्त सन्देश का आदान -प्रतिदान किया । आगत ने भी उसे देखा । परन्तु निकट बैठते हुए कहा - “ कहां से मित्रो ? " “ वाणिज्य - ग्राम को ! " “किन्तु कहां से ? " " ओह , चम्पा से ? " " परन्तु चम्पा से इस मार्ग पर क्यों ? " “ प्रयोजनवश मित्र ! ” । “ ऐसा है तो ठीक है। ” ग्रामीण ने हंसकर कहा । उस हंसी से अप्रसन्न हो एक ने कहा " इसमें हंसने की क्या बात है मित्र ? " “बात कुछ नहीं मित्र, मुझे कुछ ऐसी ही टेव है। हां , क्या मित्रो , आप में से “ कहानी ? ” “ कहानी सुनने की भी मुझे टेव है। " वह फिर हंस दिया । इस पर दोनों चिढ़ गए। उनके चिढ़ने पर भी वह ग्रामीण हंस दिया । एक ने तीखा होकर कहा - “ यह बात -बात पर हंसना क्या ? तू मित्र , ग्रामीण है ? " “ ग्रामीण तो हूं और तुम ? " " हम नागरिक हैं । ” इस बार ग्रामीण ज़ोर से हंस पड़ा । उस नागरिक ने उस पर क्रुद्ध होकर पास का दण्डहत्थक उठाया । उसके साथी ने उसे रोककर कहा - “ यह क्या करता है, उसे हंसने दे , उससे हमारा क्या बनता-बिगड़ता है! " साथी की बात मानकर वह व्यक्ति नवागन्तुक को क्रुद्ध दृष्टि से देखने लगा । इसी समय गृहपति भोजन -सामग्री लेकर वहां आया । उसने कहा - “ भन्तेगण , कुछ सैनिक ग्राम के उस ओर किन्हीं को खोजते फिर रहे हैं , कहीं वे आप ही को तो नहीं खोज रहे सुनकर तीनों व्यक्ति चौकन्ने हो शंकित दृष्टि से एक - दूसरे को देखने लगे । इस पर पीछे आए पुरुष ने कहा - “मैं उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा हूं मित्र, हम लोग उन छद्मवेशी मागध गुप्तचरों को ढूंढ़ रहे हैं जिन्हें सूली पर चढ़ाने का आदेश वैशाली से प्रचारित हुआ है। " उसने तिरछी दृष्टि से दोनों पुरुषों को देखा जो शंकित- से उसे देख रहे थे ।
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