पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३९५

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हैं । सैन्य -संगठन का ढांचा ढीला है, तरुण कामुक और विलासी हैं । " उन्होंने तीखी दृष्टि स्वर्णसेन पर डाली, जो चुपचाप विमन भाव से सब बातें सुन रहे थे। गणपति ने कहा - “ भद्र, भद्रिय क्या कुछ कहेंगे ? " भद्रिय ने कहा - " केवल यही , कि यदि हमें तत्काल ही युद्ध करना पड़ा तो राजकोष की कोई सहायता नहीं मिल सकती । बलि - संग्रह नहीं हो रहा ; और जब से दस्यु बलभद्र का आतंक बढ़ा है , इसमें और भी वृद्धि हो गई है। सम्भव है, आगारकोष्ठक मित्र स्वर्णसेन , सेना को अन्न और सामग्री दे सकें । " उन्होंने भी मुस्कराकर स्वर्णसेन की ओर देखा । स्वर्णसेन ने खड़े होकर कहा - “ दस्यु बलभद्र का दमन यदि तत्काल नहीं हुआ तो फिर आगार की सारी व्यवस्था नष्ट हो जाएगी । " अब नौबलाध्यक्ष काप्यक ने खड़े होकर कहा “ भन्ते गणपति, एक महत्त्वपूर्ण सूचना मुझे भी देनी है; मागधों ने गंगा के उस पार पाटलिग्राम में सेना का एक अड्डा बनाया है । वे जब- तब आकर ग्रामवासियों को घर से निकालकर स्वयं वहां रहने लगते हैं और वे गंगा और मिट्टी के तीर पर दो - दो लीग के अन्तर पर काष्ठ के कोट बनवाते जा रहे हैं । पाटलिग्राम का गंगा तट नौकाओं से पटा पड़ा है। इस प्रकार वैशाली की ऐन नाक के नीचे यह पाटलिग्राम मागधों का सैनिक स्कंधावार बनता जा रहा है और कभी वह वैशाली के नौ बल के लिए बहुत बड़ी बाधा प्रमाणित हो सकता है। " " तो आयुष्मान् नागसेन कहें , कि सब बातों का विचार कर हमें क्या करणीय है? " स्वर्णसेन ने बीच ही में खड़े होकर कहा "मेरा मत है कि इस कुटिल ब्राह्मण को तुरन्त बन्दी बना लिया जाए और उन सब गुप्तचरों को भी । ” “ यह तो खुला रण -निमन्त्रण होगा आयुष्मान्! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा, “ और इसका परिणाम भीषण हो सकता है । " नागसेन ने कहा “ मेरा मत है कि हमें त्रिसूत्रीय योजना विस्तार करनी चाहिए। एक सूत्र यह कि हमें निसृष्टार्थ दूत मगध को प्रेरित करना चाहिए । यह दूत कुलीन , बहुश्रुत , बहुबान्धव , बहुकृत , बहुविद्य , बुद्धि -मेधा-प्रतिभा - सम्पन्न , मधुर भाषी, सभाचगुर , प्रगल्भ , प्रतिकार और प्रतिवाद करने में समर्थ, उत्साही , प्रभावशाली , कष्टसहिष्णु , निरभिमानी तथा स्थिर स्वभाववाला पुरुष हो । उसके साथ सब यान -वाहन पुरुष - परिवार हो , करणीय विषय का ऊहापोह करने योग्य हो । ____ “ वह सम्राट को मैत्री - सन्देश दे, उसकी गतिविधि देखे , शत्रु के आटविक , अन्तपाल , नगर तथा राष्ट्र के निवासी प्रमुख जनों से मैत्री- सम्बन्ध स्थापित करे , मागध सैन्य का संगठन , व्यूह -परिपाटी, संख्या देखे- समझे। शत्रु के दुर्ग, उसका कोष , आय के साधन , प्रजा की जीविका और राष्ट्र की रक्षा एवं उसके छिद्रों को भी देखे । “ दूसरा सत्र यह है कि हमें अपने इंगित , चेष्टा , आचार एवं विचार किसी से भी ऐसा प्रकट नहीं करना चाहिए , जिसमें वैशाली में व्याप्त मागध दूतों को यह ज्ञात हो जाए कि हम सावधान हैं और हमारी योजना क्या है। "