पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३८८

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“ वज्जीगणों के नागरिकों की सेना में सम्मिलित होने का मुझे सम्मान मिला था । आचार्य बहुलाश्व ने स्वयं उसका निरीक्षण किया था । अश्व - संचालन और शार्ग धनुष , खड्ग , शल्य , गदा और शक्ति के युद्ध में वैशाली - संघ के तरुण गान्धार तरुणों से किसी प्रकार कम न थे। भन्तेगण, ऐसे मित्रों को पाकर हमें गर्व हुआ । आचार्य बहुलाश्व ने उन्हें पुष्कलावती से आनेवाले राजमार्ग से सम्पूर्ण सिन्धुतट की रक्षा का भार सौंपा था । शास ने शिरभी, सौवीर, पख्त , भलानस और वक्षु नदी के उत्तर तथा पर्शपुरी के पूर्व के सम्पूर्ण जनपद को ध्वंस करने की बड़ी भारी तैयारी की थी । परन्तु उसकी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि वह सिन्धु को जहां से चाहे पार नहीं कर सकता था । उसे वैशाली के तरुणों से रक्षित - गोपित घाटों ही से नदी पार करना अनिवार्य था । भन्ते, मैं अत्युक्ति नहीं करता, इन वीर तरुण वज्जियों के कौशल और शौर्य ही के कारण वह अपने सम्पूर्ण जनबल से लाभ नहीं उठा सका और हमने उसके खण्ड - खण्ड करके सदैव के लिए उसको दलित कर दिया । वह बहुत कम बल लेकर पीछे लौट सका। वज्जी वीरों ने गांधार तरुणों के साथ सिन्धु पार कर पुष्कलावती , सुवास्तु और कुभा तक उसका पीछा किया और शत्रुवाहिनी - पति को जीवित पकड़ लिया । तब हमारे प्रधान सेनानायक प्रियमेघ ने अश्रु-गद्गद होकर कहा था तक्षशिला सदा के लिए वैशाली का ऋणी रहेगा .... और आज अपने सेनापति के वे ही शब्द मैं भी संथागार में दुहराता हूं। " प्रचण्ड करतल - ध्वनि और साधु- साधु की ध्वनि के बीच काप्यक चुपचाप खड़े रहे । फिर ठहरकर बोले - “ गान्धार में वज्जियों के अष्टकुलों की कीर्ति -ध्वजा फहरानेवाले, शासनुशास के वाहिनीपति को जीवित बन्दी बनानेवाले मेरे सुहृद् प्रियदर्शी सिंह यहां आपके सम्मुख उपस्थित हैं , जिनके नेतृत्व में वैशाली तन्त्र के तरुणों ने वह कीर्ति कमाई थी । वहां हमारे संघ ने वयस्य सिंह को गान्धार जनपद का नागरिक और गांधार गण- संघ का आजन्म सदस्य चुना था । परन्तु भन्तेगण , मुझे और भी कुछ कहना है। जब हर्षध्वनि के बीच आचार्य बहुलाश्व ने गांधारगण के समक्ष यह घोषणा की कि उनकी सुकुमारी कुमारी रोहिणी का वीरवर सिंह के प्रति सात्त्विक प्रेम है और वे उसका अनुमोदन करते हैं , तब सम्पूर्ण गणजन में आनन्द और उल्लास का समुद्र हिलारें लेने लगा और गणजन ने इच्छा प्रकट की कि रोहिणी और सिंह का पाणिग्रहण गण के समक्ष वहीं हो । _ “ गणपति की इस आज्ञा का पालन करने जब सुश्री रोहिणी वक्षकोष्ठक में बैठी सखियों के बीच से उठ लज्जा और हर्ष से आरक्त - अवनतमुखी अपनी माता के पीछे-पीछे शाला के भीतर आई, तो सदस्यों की उत्सुक दृष्टियों के भार से जैसे वह दब गई। उसके सुनहरे तार के समान बालों में अंगूर के ताजे गुच्छों का और जवाकुसुमों का शृंगार था , उसने कण्ठ में मुक्तामाल और कान में हीरक - कुण्डल पहने थे। वह सुन्दर कौशेय और काशिक के उत्तरीय अन्तर्वासक और कंचुक से सुसज्जिता थी । उस समय वह गान्धार जनपद की कुलदेवी - सी प्रतीत होती थी । गान्धारराज ने अपने हाथों उसे सिंह को समर्पित किया ; और समस्त जनपद ने दूसरे दिन गण -नक्षत्र मनाया , जो हम जातीय त्योहार के दिन ही मनाते हैं । भन्ते, इस प्रकार गान्धार जनपद ने अष्टकुल के वज्जियों की वीरता का जो अधिक- से - अधिक सम्मान किया जा सकता था -किया । परन्तु फिर भी गान्धार गणपति ने घोषित किया था कि यह यथेष्ट नहीं है। और फिर गांधार गणसंघ ने एक नागरिक