पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३८४

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करो। उसे प्रसन्न करो । नहीं तो सम्पूर्ण वैशाली ही का नाश हो जाएगा । हे ब्राह्मणो ! अपने पाप से वैशाली को नष्ट न करो। " __ यह सुनकर सब ब्राह्मण, बटुक ब्रह्माचारी , वेदपाठी श्रोत्रिय जन सहस्रों , भीत विस्मित , चमत्कृत नागर पौरजनों की भीड़ के साथ विकट विजन मन्दकान्तार वन में साणकोष्ठ चैत्य में जा अतिभयानक शूलपाणि यक्ष की मूर्ति के सामने भूमि पर गिरकर त्राहि माम् त्राहि माम् ! कहने लगे। तब उस अन्ध गुफा से मूर्ति के पीछे से रक्ताम्बर धारण किए और शूल हाथ में लिए वही सुन्दरी बाला बाहर आई और उच्च स्वर से कहने लगी - “ अरे मूढ़ जनो ! मैं तुम सब ब्राह्मणों का आज भक्षण करूंगी। मैं यक्षिणी हूं। तुमने ब्राह्मणत्व के दर्प में मनुष्य - मूर्ति का तिरस्कार किया है ; क्या तुम नहीं जानते कि ब्राह्मण और चाण्डाल दोनों में एक ही जीवन सत्त्व प्रवाहित है, दोनों का जन्म एक ही भांति होता है, एक ही भांति मृत्यु होती है, एक ही भांति सोते हैं , खाते हैं ; इच्छा , द्वेष , प्रयत्न के वशीभूत हो सुख - दुःख की अनुभूति करते हैं । अरे मूर्यो! तुमने कहा था कि तुम्हारा तप: पूत अन्न फेंक भले ही दिया जाए, पर चाण्डाल याचक को नहीं मिलेगा ? तुम मनुष्य -हिंसक , मनुष्य हितबाधक हो , तुम मनुष्य -विरोधी हो । मरो तुम आज सब ! ” ___ " त्राहि माम् , त्राहि माम् ! हे देवी , हे यक्षिणी मात :, हमारी रक्षा करो! हमने समझा था - हमारा पूत अन्न .....। " “ अरे मूर्यो, तुम जल से शरीर की बाह्य शुद्धि करके उसे ही महत्त्व देते हो , तुम अन्तरात्मा की शुद्धि को नहीं जानते । अरे, यज्ञ करने वाले ब्राह्मणो, तुम दर्भयज्ञ , यूप , आहवनीय , गन्ध , तृण, पशुबलि , काष्ठ और अग्नि तक ही अपनी ज्ञानसत्ता को सीमित रखते हो ; तुमने असत्य का , चोरी का , परिग्रह का त्याग नहीं किया। तुम स्वर्ण, दक्षिणा और भोजन के लालची पेटू ब्राह्मण हो , तुम शरीर को महत्त्व देते हो , शरीर की सेवा में लगे रहते हो । तुम सच्चे और वास्तविक यज्ञ को नहीं जानते । ” “ तो यक्षिणी मात:, हमें यज्ञ की दीक्षा दीजिए। “ अरे मूर्ख ब्राह्मणो! कष्ट सहिष्णुता तप है, वही यज्ञाग्नि है, जीवन - तत्त्व यज्ञाधिष्ठान है । मन -वचन - कर्म की एकता यज्ञाहुति है । कर्म समिधा है और आत्मतुष्टि पूर्णाहुति है। विश्व के प्राणियों में आत्मानुभूति का अनुभव कर समदर्शी होना स्वर्ग- प्राप्ति " धन्य है मात :! धन्य है यक्षकुमारी! हम सब ब्राह्मण तेरी शरण हैं , हमारी रक्षा करो! हमारी रक्षा करो !! ” इसी प्रकार रुदन करते , वे सब ब्राह्मण फिर भूमि पर उस सुन्दरी के चरणों में गिर गए । तब ब्राह्मण सोमिल के सिर को शूल से छूकर उस यक्षकुमारी ने कहा - “ उठ रे ब्राह्मण , अभी तुम्हें जीवन दिया है । " इतना कहकर वह तेजी से यक्षमूर्ति के पीछे गुहाद्वार में जा अन्धकार में लोप हो गई; और वे ब्राह्मण तथा पौर जानपद भय , भक्ति और विविध भावनाओं से विमूढ़ बने नगर की ओर लौटे ।