पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३८०

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111. हरिकेशीबल इस समय वैशाली में एक और नवीन प्राणी का आगमन हुआ था । यह एक आजीवक परिव्राजक था । वह अत्यन्त लम्बा, काला , कुरूप और एक आंख से काना था । उसकी अवस्था बहुत थी - वह अति कृशकाय था ; परन्तु उसकी दृष्टि पैनी , वाणी सतेज और शरीर का गठन दृढ़ था । वह कभी स्नान नहीं करता था , इससे उसका शरीर अत्यन्त मलिन और दूषित दीख पड़ता था । उसने अंग पर पांसुकुलिक धारण किए थे, जो श्मशान में मुर्दो पर से उतारकर फेंक दिए गए थे। वे भी फटकर चिथड़े-चिथड़े हो गए थे और गंदे होकर मिट्टी के रंग भी मिल गए थे। यह आजीवक निर्द्धन्द्ध विचरण करता । गृहस्थों के द्वार पर , वीथी- हट्ट पर , राजद्वार , और राजपथ पर सर्वत्र अबाध रूप में निरन्तर घूमता था । उसका सोने - बैठने ठहरने का कोई स्थान न था । उसकी जीवन -यात्रा में सहायक सामग्री भी कुछ उसके निकट न थी । इस प्रकार यह कृशकाय , घृणित और कुत्सित मलिन भूत - सा व्यक्ति जहां जाता , वहीं लोग उसे तिरस्कारपूर्वक दुत्कार देते , उसे अशुभ रूप समझते। परन्तु उसे इस तिरस्कार घृणा की कोई चिन्ता न थी । वह जहां से भिक्षा मांगता , वहां जाकर कहता - “ मैं चाण्डालकुलोत्पन्न हरिकेशीबल हूं । मैं सर्वत्यागी संयमी ब्रह्मचारी हूं। मैं अपने हाथ से अन्न नहीं रांधता , मुझे भिक्षा दो । भिक्षा मेरी जीविका है । " बहुत लोग उसे मारने दौड़ते , बहुत मार बैठते , बहुत उसे दुत्कार कर भगा देते ; पर वह किसी पर रोष नहीं करता था । वह मार , तिरस्कार और धक्के खाकर हंसता हुआ दूसरे द्वार पर वही शब्द कहकर भिक्षा मांगता था । कभी -कभी लोग उस पर दया करके उसे कुछ दे भी देते थे, पर उसे बहुधा निराहार ही किसी वृक्ष के नीचे पड़े रहना पड़ता था । वह घूमता हुआ एक दिन कुण्डग्राम के दक्षिणब्राह्मण - सन्निवेश में सोमिल श्रोत्रिय के द्वार पर जा पहुंचा। वहां ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों , श्रोत्रियों और वेदपाठी बटुकों की भीड़ लगी थी । आर्य वर्षकार एक छप्पर के नीचे बांस की बनी मींड पर बैठे अपनी आंखों स्वर्ण वस्त्र का बांटा जाना देख रहे थे। अनेक श्रोत्रिय बटुक इस आयोजन में हाथ बंटा रहे थे। इसी समय आजीवक हरिकेशीबल उन ब्राह्मणों की भीड़ में मिलकर जा खड़ा हुआ । इस अशुभ , अशुचि , घृणित श्मशान से उठाए हुए चीथड़े अंग पर लपेटे , काणे मनुष्य को देखकर सब ब्राह्मण , बटुक एवं श्रोत्रिय दूर हट गए । बहुतों ने मारने को दण्ड हाथ में लेकर कहा ___ “ तू कौन है रे भाकुटिक? कहां से तू ब्राह्मणों में घुस आया ? भाग यहां से! " उसने सहज - शान्त स्वर में कहा - “मैं चाण्डाल - कुलोत्पन्न हरिकेशीबल हूं। मैं सर्वत्यागी ब्रह्मचारी हूं । मैं अपना अन्न रांधता नहीं । भिक्षा मेरी जीविका है, मुझे भिक्षा दो । "