अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। पूर्वाकाश की पीत प्रभा पर शुक्र नक्षत्र हीरे की भांति दिप रहा था। सप्तभूमि प्रासाद के प्रहरी गण अलसाई-उनींदी आंखों को लिए विश्राम की तैयारी में थे। एकाध पक्षी जग गया था। एक तरुण धूलि-धूसरित, मलिन-वेश, अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में धीरे-धीरे प्रासाद के बाहरी तोरण पर आ खड़ा हुआ। प्रहरी ने पूछा––"कौन है?"
"मैं देवी अम्बपाली से मिलना चाहता हूं।"
"अभी देवी अम्बपाली शयनकक्ष में हैं, यह समय उनसे मिलने का नहीं है, अभी तुम जाओ।"
"मैं नहीं जा सकता, देवी के जागने तक मैं प्रतीक्षा करूंगा।" यह कह वह प्रहरी की अनुमति लिए बिना वहीं तोरण पर बैठ गया।
प्रहरी ने क्रुद्ध होकर कहा––"चले जाओ तरुण, यहां बैठने की आज्ञा नहीं है। देवी से संध्याकाल में मिलना होता है। इस समय नहीं।"
"कुछ हर्ज नहीं, मैं संध्याकाल तक प्रतीक्षा करूंगा।"
"नहीं–नहीं, भाई, चले जाओ तुम, यहां विक्षिप्तों के प्रवेश का निषेध है।"
"मुझे अनुमति मिल जाएगी मित्र, मैं वैसा विक्षिप्त नहीं हूं।"
प्रहरी क्रुद्ध होकर बलपूर्वक उसे हटाने लगा, तो तरुण ने खड्ग खींच लिया। प्रहरी ने सहायता के लिए सैनिकों को पुकारा। इतने ही में ऊपर से किसी ने कहा––"इन्हें आने दो प्रहरी।"
प्रहरी और आगन्तुक दोनों ने देखा, स्वयं देवी अम्बपाली अलिन्द पर खड़ी आदेश दे रही हैं। प्रहरी ने देवी का अभिवादन किया और पीछे हट गया। तरुण तीनों प्रांगण पार करके ऊपर शयनकक्ष में पहुंच गया।
अम्बपाली ने पूछा––"रात भर सोए नहीं हर्षदेव!"
"तुम भी तो कदाचित् जगती ही रहीं, देवी अम्बपाली!"
"मेरी बात छोड़ो। परन्तु तुम क्या रात-भर भटकते रहे हो?"
"कहीं चैन नहीं मिला, यह हृदय जल रहा है। यह ज्वाला सही नहीं जाती अब।"
"एक तुम्हारा ही हृदय जल रहा है हर्षदेव! परन्तु यदि यह सत्य है तो इसी ज्वाला से वैशाली के जनपद को फूंक दो। यह भस्म हो जाए। तुम बेचारे यदि अकेले जलकर नष्ट हो जाओगे तो उससे क्या लाभ होगा?"
"परन्तु अम्बपाली, तुम क्या एकबारगी ही ऐसी निष्ठुर हो जाओगी? क्या इस आवास में तुम मुझे आने की अनुमति नहीं दोगी? मैं तुम्हारे बिना रहूंगा कैसे? जीऊंगा कैसे?"