ससुराल का परिपूर्ण आनन्द भोगता रहा। फिर ब्राह्मण की बात को स्मरण कर तथा वैशाली को लौटने की उत्सुकता से श्वसुर से आग्रह कर विविध बहुमूल्य वस्तुओं से तीन जहाज़ भर अपनी स्त्री मृगावती , पुत्र पुण्डरीक और दास - दासियों - कम्मकरों को संग ले जल -यात्रा को निकल पड़ा । वह माल लेता -बेचता , लाभ उठाता बंग, कलिंग, अवन्ती , भोज , आन्ध्र , माहिष्मती , भृगुकच्छ और प्रतिष्ठान, जल- थल में जैसा सुयोग मिला, घूमता फिरा । उसने ब्राह्मण की दी हुई सूची के अनुसार बंग में वैश्रमणदत्त , कलिंग में वीरकृष्ण मित्र, अवन्ती में श्रीकान्त , भोज में समुद्रपाल, आन्ध्र में स्यमन्तभद्र , माहिष्मती में सुगुप्त, भृगुकच्छ में सुदर्शन और प्रतिष्ठान में सुवर्णबल से मिलकर ब्राह्मण का गूढ़ सन्देश दिया और उनका गूढ़ सन्देश ब्राह्मण के लिए प्राप्त किया । इसी यात्रा के बीच जब वह पूर्वीद्वीप - समूहों में विचरण करता हुआ हस्तिशीर्ष द्वीप में पहुंचा, तो उसकी भेंट कई अन्य सार्थवाहों से हो गई , जो उसी की भांति विक्रेय वस्तु द्वीप- द्वीपान्तरों में बेचने जा रहे थे। हस्तिशीर्ष द्वीप से उसने उनके साथ ही मिलकर यात्रा की । दैवसंयोग से कुछ दिन समुद्र में यात्रा करते हुए उनके समुद्रयान झंझावात में फंस गए, वे सब यान टूट -फूटकर आरोहियों सहित समुद्र में डूब गए। केवल एक पोत , जिसमें कृतपुण्य और उसके पत्नी - पुत्र दास और धन -स्वर्ण था , किसी भांति कई दिन तक लहरों पर उथल - पुथल होता समुद्र-बीच अज्ञात और निर्जन कालिका द्वीप के किनारे जा टकराया । किसी प्रकार भूस्पर्श करने से उन लोगों को ढाढ़स हुआ । द्वीप में मीठा जल पी और स्वादिष्ट फल - मूल खाकर उन्होंने कई दिन की भूख -प्यास तृप्त की । परन्तु द्वीप जनरहित है, यह देख उन्हें दुःख हुआ। फिर भी स्वादिष्ट फल - मूल और मीठे जल की बहुतायत से उन्हें बड़ा सहारा मिला । उन्होंने अपने समुद्रयान की मरम्मत की तथा अनुकूल वायु की प्रतीक्षा में वहीं पड़े रहे। इसी द्वीप में फल - मूल की खोज में घूमते - भटकते उसे माणिक्य और स्वर्ण की खाने मिल गईं। इस प्रकार दुर्भाग्य में से भाग्योदय देखकर वह उन्मत्त की भांति हर्ष से नाचने लगा । उसने दासों और कम्मकरों की सहायता से स्वर्ण और रत्न की राशि अपने जहाज में भर ली । इतना अधिक बेतोल स्वर्ण तथा सूर्य के समान तेजवान् त्रिलोक- दुर्लभ कुडव -प्रस्थ भार के माणिक्य पाकर उसके रक्त की एक - एक बूंद उसकी नाड़ियों में नाचने लगी । अब वह पृथ्वी पर सबसे बड़ा धन कुबेर था । मनुष्य की दृष्टि से न देखे गए रत्न उसके चरणों में परन्तु उसके सौभाग्य की समाप्ति यहीं पर नहीं हुई । पूर्णिमा को चन्द्रोदय होने पर ज्यों ही समुद्र में ज्वार आया, बहुत - से अद्भुत समुद्री अश्व जल में बहकर द्वीप के तट पर आए और द्वीप में विचरण करने लगे । उन अद्भुत और विद्युत्वेग के समान चपल तथा मनुष्य - लोक में दुर्लभ महाशक्ति - सम्पन्न वाडव अश्वों को देख प्रथम तो कृतपुण्य और उसके संगी-साथी भयभीत होकर एक योजन दूर भाग गए, परन्तु जब समुद्र में ज्वार उतर गया और वे अश्व भी समुद्र - गर्भ में चले गए, तब वे लोग फिर समुद्र- तट पर आकर पराक्रमी अश्वों को देखते रहे । कृतपुण्य ने इन अश्वों को पकड़कर ले जाने का निश्चय किया । अन्तत : वह साहसिक
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