पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३६६

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" तो चल मित्र , तनिक सहारा देकर उठा तो । " सूर्यमल्ल ने स्वर्णसेन को उठाकर खड़ा किया । स्वर्णसेन ने लड़खड़ाते हुए कहा - “ चलो अब। ” " कहां ? " " देवी अम्बपाली के आवास को ! " “ और महाबलाधिकृत का आदेश? " " वह कल सूर्योदय के बाद देखा जाएगा । " " परन्तु दस्यु .... ” " उस भाग्यहीन दस्यु को अभी कुछ क्षण मधुवन में विश्राम करने दो मित्र, सूर्योदय होने पर मैं उसे अपने खड्ग से खण्ड- खण्ड कर दूंगा । " सूर्यमल्ल ने कुद्ध होकर कहा - “ ऐसा नहीं हो सकता , महाबलाधिकृत का आदेश है। ” " होने दे मित्र , मेरी बात मान - चल अम्बपाली के आवास में , पी सुवासित मद्य , चख रूपसुधा , संगीतालाप और भोग स्वर्ग- सुख । चल मित्र ! ” उसने कसकर सूर्यमल्ल का हाथ पकड़ लिया । सूर्यमल्ल ने विरक्ति से कहा - “ तब तुम जाओ देवी के आवास की ओर , मैं अकेला ही मधुवन जाऊंगा। ” “ अरे मित्र, तू नितान्त अरसिक है, यह चन्द्रमा की ज्योत्स्ना, यह शीतल मन्द सुगन्ध समीर , यह मादक यौवन , यह तारों- भरी रात ! चल मित्र , चल ! " युवराज एकबारगी ही सूर्यमल्ल के कंधे पर झुक गया और वे दोनों अंधकार पूर्ण राजपथ पर धीरे - धीरे चले अम्बपाली के आवास की ओर।