105 .युवराज स्वर्णसेन नहीं । स्वर्णसेन ने मद्य पीकर रिक्तमद्य-पात्र दासी की ओर बढ़ा दिया और अर्धनिमीलित नेत्रों से उसे घूरकर कहा - “ और दे! दासी पात्र हाथ में लिए अवनत - वदन खड़ी रही। इस बार उसने मद्य पात्र भरा स्वर्णसेन ने कहा - “मद और दे हला ! " " अब नहीं । " युवराज ने कुछ अधिक नेत्र खोलकर कहा- “ अब और क्यों नहीं, दे हन्दजे, मद “ वह अधिक हो जाएगा भन्ते, ” दासी ने कातर वाणी से कहा । युवराज उठकर बैठ गए। उन्होंने कुछ उत्तेजित होकर “ दे हला , मद दे ” कहते हुए वेग से हाथ हवा में हिलाया । __ दासी ने एक बार फिर कातर नेत्रों से युवराज को देखा और फिर चुपचाप पात्र भरकर युवराज के हाथ में दे दिया । इसी समय एक दण्डधर ने आकर महाअट्टवी -रक्खक सूर्यमल्ल के आने की सूचना दी । सूर्यमल्ल स्वर्णसेन के अन्तरंग मित्र थे। उनके लिए कोई रोक-टोक नहीं थी । वे दण्डधर के पीछे ही पीछे चले आए। स्वर्णसेन ने उद्योग करके अपनी आंखें खोलकर जिज्ञासा - भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा। उस देखने का अभिप्राय यह था कि इस असमय में क्यों ? सूर्यमल्ल ने साभिप्राय दासी की ओर देखा। दासी नतमस्तक वहां से चली गई । सूर्यमल्ल ने कहा - “ सुना है तुमने स्वर्ण , आज अन्तरायण लुट गया है ? " __ मद्यपात्र अभी भी स्वर्णसेन के होंठों से लगा था । अब उन्होंने आंखें बन्द कर लीं । सूर्यमल्ल ने उत्तेजित होकर कहा “मैं महाबलाधिकृत का सन्देश लाया हूं। " “ महाबलाधिकृत ने असमय में क्या सन्देश भेजा है मित्र ? " स्वर्णसेन ने लड़खड़ाती वाणी से पूछा । “ यही , कि हम अभी तत्काल दस सहस्र सेना लेकर मधुवन को घेर लें । " " अभी क्यों ? फिर कभी क्यों नहीं ? " उन्होंने मद्यपात्र एक ओरफेंकते हुए कहा । " चर ने सन्देश दिया है कि दस्यु बलभद्र मधुवन में छिपा है । " " दस्यु से तुम डरते हो सूर्यमल्ल ? धिक्कार है! " “किन्तु गणपति का आदेश है कि हम अभी दस सहस्र सैन्य .... " " परन्तु हम क्यों , तुम क्यों नहीं ? " “ मैं भी साथ चलता हूं। "
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