पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३६१

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क्यों पदातिक एकाकी यात्रा कर रहा है? फिर ऐसे मूल्यवान रत्नों के दाम तो बहुत हैं । ब्राह्मण सोचने लगा , इसमें कोई रहस्य है । जब दोनों भोजन कर चुके तब ब्राह्मण ने प्रसन्नदृष्टि से कहा “ बैठ गृहपति , तेरा नाम क्या है ? ” बटारू ने निकट बैठते हुए कहा - “मैं कृतपुण्य हूं, वीतिभय के सेट्ठि धनावह का पुत्र । ” " अहा , सेट्टि धनावह ! अरे, वह तो मेरा यजमान था भन्ते ! तेरी जय रहे गृहपति , पर तू एकाकी कहां इस तरह दरिद्र बटारू की भांति यात्रा कर रहा है ? " " मैं चम्पा जा रहा हूं भन्ते ! " " चम्पा ? इस भांति साधन - रहित ? सुनूं तो क्यों ? " “ क्या कहूं , आर्य, मैं बड़ी विपन्नावस्था में हूं । " “ कह भद्र , मैं तेरा पुरोहित हूं, ब्राह्मण हूं। " तो आर्य, दुष्टा माता ने मुझे घर से बहिष्कृत किया है, अब मैं चम्पा जा रहा हूं । वहां मेरी मध्यमा पत्नी का पिता रहता है , वहीं उसके आश्रम में । " " परन्तु इस अवस्था में क्यों ? " " मेरे पास धन नहीं है आर्य! " "पाथेय कहां पाया ? " " माता से छिपाकर मध्यमा ने दिया । " । ब्राह्मण कुछ-कुछ मर्म समझ गया । वह सन्देह की तीखी आंखों से बटारू को देखता रहा । फिर एकाएक अट्हास करके हंस पड़ा । उस हंसने से अप्रतिभ हो बटारू ने कहा “ आर्य के इस प्रकार हंसने का क्या कारण है ? " “ यही, कि गृहपति , तू भेद को छिपा नहीं सका। " बटारू ने सूखे कण्ठ से कहा - “ भेद कैसा ? " " तो तू सत्य कह , भद्र , तू कौन है ? " " जो कहा, वह क्या असत्य है ? " " असत्य ही है भद्र ! " “ कैसे जाना आर्य? " " तेरे नक्षत्र देखकर , तू तो सामन्तपुत्र है। " ब्राह्मण ने अपनी पैनी दृष्टि से बटारू के वस्त्रों में छिपे खड्ग की नोक की ओर ताकते हुए कहा। बटारू ने इस दृष्टि पर लक्ष्य नहीं किया । उसने पृथ्वी में गिरकर ब्राह्मण को प्रणाम किया और कहा - “ आप त्रिकालदर्शी ब्राह्मण हैं , मैं सामन्तपुत्र ही हूं - उस दुष्टा सेट्टनी ने मुझे अपनी चार पुत्र - वधुओं में नियुक्त किया था , तथा यथेच्छ शुल्क देने का वचन दिया था । अब पांच संतति उत्पन्न कर मुझे उस मेधका ने छूछे-हाथ खदेड़ दिया । मध्यमा ने मुझे पाथेय दे चम्पा का संकेत किया है, वहां मैं उसकी प्रतीक्षा करूंगा। " " परन्तु तू कौन है आयुष्मन् , अपना वास्तविक परिचय दे, मैं तेरी सब इच्छा पूरी