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अम्बपाली ने अपना हाथ फैला दिया । युवक ने देवी के हाथ को आदर से थाम कर कहा " तो देवी , क्या यह सत्य है कि ..... ” “ हां सत्य ही है प्रिय , उसी भांति जिस भांति तुम्हारे लौह वेध और शरीरवेध के वे विशिष्ट प्रयोग । " स्वर्णसेन ने शंकित - सा होकर कहा " तो सिंह का आक्रमण क्या प्रतारणा थी ? " “निस्सन्देह युवराज, क्या तुमने वह दिव्य वीणा और चित्र देखा नहीं ? " " देख रहा हूं, देवी ! तो इस सौभाग्य पर मैं आपको बधाई देता हूं। " मणिभद्र ने कहा - “ मैं भी आर्ये! " “ धन्यवाद मित्रो, आज अच्छी तरह पान करो । आज मैं सम्पूर्ण हूं, कृतकृत्य हूं, मैं धन्य हूं। मित्रो, मैं देवजुष्टा हूं। "
- चारों ओर देवी अम्बपाली की जय - जयकार होने लगी और तरुण बारम्बार मद्य
पीने और ‘ देवी अम्बपाली की जय चिल्लाने लगे ।