पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३५८

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भरे अम्बपाली को एक बार देख भर लेने को व्याकुल हो उठे । परन्तु प्रहर रात गए तक भी देवी अपने एकान्त कक्ष से बाहर नहीं निकलीं। इस समय वैशाली के श्रीमन्त तरुणों से अतिथि - गृह भर गया था । डेढ़ दण्ड रात बीतने पर अम्बपाली ने प्रमोद - गृह में प्रवेश किया । इस समय उनका परिधान बहुत सादा था । उनका मुख अभी भी सफेद हो रहा था । नेत्रों में विषाद और वेदना ने एक अप्रतिम सौन्दर्य ला दिया था । सेट्ठिपुत्र और सामन्त युवक देवी का स्वागत करने को आगे बढ़े। देवी अम्बपाली ने आगे बढ़कर मृदु- मन्द स्वर में कहा ___ “मित्रो, आपका स्वागत है , आप सब चिरंजीव रहें ! " " देवी चिरंजीवी हों - ” अनेक कण्ठों से यही स्वर निकला । देवी मुस्कराईं और आगे बढ़कर स्फटिक की एक आधारवाली पीठ पर बैठ गईं । उन्होंने स्वर्णसेन को देखकर आगे हाथ बढ़ाकर कहा “ युवराज, आगे आओ; देखो, किस भांति हम पृथक् हुए और किस भांति अब फिर मिले, इसको जीवन का रहस्य कहा जा सकता है। " स्वर्णसेन ने द्रवित होकर कहा - “किन्तु देवी , मैं साहस नहीं कर सकता । देवी की आपदा का दायित्व तो मुझी पर है। " “ आपदा कैसी मित्र ? ” “ आह, उसे स्मरण करने से अब भी हृदय कांप उठता है! कैसा भयानक हिंस्र जन्तु था वह सिंह। ” “किन्तु वह तो एक दैवी प्रतारणा थी , मित्र , उसके बाद तो जो कुछ हुआ वह अलौकिक ही था ? ” “ तब क्या यह सत्य है देवी , कि आपका वन में गन्धर्वराज से साक्षात् हुआ था ? " एक अपरिचित युवक ने तनिक आगे बढ़कर कहा । युवक अत्यन्त सुन्दर, बलिष्ठ और गौरांग था , उसके नेत्र नीले और केश पिंगल थे, उठान और खड़े होने की छवि निराली थी , उसका वक्ष विशाल और जंघाएं पुष्ट थीं । देवी ने उसकी ओर देखकर कहा - “ परन्तु भद्र, तुम कौन हो ? मैं पहली ही बार तुम्हें देख रही हूं। ” स्वर्णसेन ने कहा " यह मेरा मित्र मणिभद्र गान्धार है, ज्ञातिपुत्र सिंह के साथ तक्षशिला से आया है । वहां इसने आचार्य अग्निदेव से अष्टांग आयुर्वेद का अध्ययन किया है और अब यह कुछ विशेष रासायनिक प्रयोगों का क्रियात्मक अध्ययन करने आचार्य गौड़पाद की सेवा में वैशाली आया है। " " स्वागत भद्र! ” अम्बपाली ने उत्सुक नेत्रों से युवक को देखकर मुस्कराते हुए कहा -“प्रियदर्शी सिंह तो मेरे आवास के विरोधी हैं । उन्होंने तुम्हें कैसे आने दिया प्रिय और आचार्य से कैसे प्रयोग सीखोगे ? " " लौहवेध और शरीरवेध- सम्बन्धी। " “ क्या वे सब सत्य हैं , प्रिय भद्र ? आचार्य गौड़पाद से तो मैं बहुत भय खाती हूं। " " भय कैसा देवी ? " " आचार्य की भावभंगी ही कुछ ऐसी है। ” वह हंस पड़ी। युवक भी हंस पड़ा ।