पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३५५

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" गुरु कैसे ? " "फिर जानोगी प्रिये, अभी विदा, सुप्रभात के लिए। " “विदा प्रिय ! ” “ युवक अन्धकार में खो गया और देवी अम्बपाली अपने - आप में ही खो गईं । वह रात- भर भूमि पर लेटी रहीं , युवक की पद- धूलि को हृदय से लगाए । एक दण्ड रात रहे, युवक ने कुटी - द्वार पर आघात किया । “ तैयार हो प्रिये ! ” " हां भद्र ! " युवक भीतर आ गया । " क्या रात को सोईं नहीं प्रियतमे ? " “ सोना -जागना एक ही हुआ प्रिय ! ” युवक कुछ देर चुप रहा । फिर एक गहरी सांस छोड़कर उसने कहा - “ अश्व बाहर है । क्या कुछ समय लगेगा ? " " नहीं , चलो ! ” युवक ने वह चित्र और वीणा उठा ली । उसने सिंह की खाल आगे रखकर कहा “ यह उसी सिंह की खाल है । कहो तो इसे तुम्हारी स्मृति में रख लूं ? ” " वह तुम्हारी ही है प्रिय । इस अधम शरीर की खाल , हाड़ , मांस , आत्मा , भी । " अम्बपाली की आंखों से मोती बिखरने लगे । दोनों धीरे -धीरे कुटी से बाहर हुए। अम्बपाली के जैसे प्राण निकलने लगे। नीचे आकर देखा - एक ही अश्व है । “ एक अश्व क्यों ? ” " तुम्हारे लिए। ” “ और तुम ? " “मैं तुम्हारा अनुचर पदातिक। " " परन्तु पदातिक क्यों ? " " तुम्हारे गुरुपद के कारण । " " यह नहीं हो सकेगा, प्रिय ! ” । " अच्छी तरह हो सकेगा, आओ, मैं आरोहण में सहायता करूं । " " परन्तु तुम पदातिक क्यों भद्र ? “ मुझे देवी अम्बपाली के साथ - साथ अश्व पर चलने की क्षमता नहीं है। प्रिये, देवी अम्बपाली लोकोत्तर सत्त्व हैं । " युवक का कण्ठ - स्वर कांपने लगा । अम्बपाली ने उत्तर नहीं दिया , वह चुपचाप अश्व पर चढ़ गईं। युवक पदातिक चलने लगा। दोनों धीरे- धीरे उपत्यका में उतरने लगे । उषा का प्रकाश प्राची दिशा को पीला रंग रहा था , वृक्ष और पर्वत अपनी ही परछाईं के अनुरूप अन्धकार की मूर्ति बने थे। उसी अन्धकार में से , वन के निविड़ भाग में होकर वह अश्वारोही और उसका संगी , दोनों धीरे - धीरे वैशाली के नगर - द्वार पर आ खड़े