101.विदा सात दिन के अनवरत प्रयत्न से चित्र बनकर तैयार हो गया । इसके लिए अम्बपाली को प्रत्येक भाव -विभाव के लिए अनेक बार नृत्य करना पड़ा। जो चित्र सम्पूर्ण हुआ वह साधारण चित्र न था , वह मूर्तिमती कला थी । देवी अम्बपाली की अलौकिक शरीर - छटा और कला का विस्तार ही उस चित्र में न था , उसमें अम्बपाली की असाधारण संस्कृत आत्मा तक प्रतिबिम्बित थी । वह चित्र वास्तव में सम्पूर्ण रीति पर आंखों से नहीं देखा जा सकता था । उसे देखने के लिए दिव्य भावुकता की आवश्यकता थी । चित्र को देखकर अम्बपाली स्वयं भी चित्रवत् हो गईं । चित्र की समाप्ति पर सान्ध्य भोजन के उपरान्त जब युवक गुफा में शयन के लिए जाने लगा , तब उसने कहा __ “प्रियतमे , आज इस कुटी में तुम्हारी अन्तिम रात्रि है, कल भोर ही में हम नगर को चलेंगे। मैं अश्व लेता आऊंगा प्रिये ! तनिक जल्दी तैयार हो जाना । मैं सूर्योदय से प्रथम ही तुम्हें नगर - पौर पर छोड़कर लौट आना चाहता हूं । दिन के प्रकाश में मैं नगर में जाना नहीं चाहता । " कल उसे इस कुटिया से चला जाना होगा, यह सुनकर अम्बपाली का हृदय वेग से धड़क उठा; वह कहना चाहती थी - कल क्यों प्रिय , मुझे अभी और यहीं रहने दो , सदैव रहने दो , पर वह कह न सकीं । उनकी वाणी जड़ हो गई । युवक ने कहा - “ कुछ कहना है प्रिये ? " " बहुत कुछ, परन्तु कहूं कैसे ? " “ कहो प्रिय , कहो ! ” " तुम छद्मवेशी गूढ पुरुष हो , मुझे अपने निकट ले आओ, प्रिय मुझे परिचय दो। " युवक ने सूखी हंसी हंसकर कहा " इतना होने पर भी परिचय की आवश्यकता रह गई प्रिये ? मैं तुम्हारा हूं यह तो जान ही गईं; और जो ज्ञेय होगा, यथासमय जानोगी; उसके लिए व्याकुलता क्यों ? ” कुछ देर चुप रहकर अम्बपाली ने कहा " तुमने कहां से यह अगाध ज्ञान - गरिमा प्राप्त की है भद्र, और यह सामर्थ्य? " " ओह, मैं तक्षशिला का स्नातक हूं प्रिये , तिस पर अंग -बंग , कलिंग, चम्पा , ताम्रपर्णी और सम्पूर्ण जम्बूद्वीपस्थ पूर्वीय उपद्वीपों में मैं भ्रमण कर चुका हूं और मेरा यह शरीर - सम्पत्ति पैतृक है । ” क्षण - भर स्तब्ध खड़ी रहकर अम्बपाली युवक के चरणों में झुक गईं , उन्होंने कहा “ भद्र , अम्बपाली तुम्हारी अनुगत शिष्या है। " " और गुरु भी ! ” युवक ने अम्बपाली को हृदय से लगाकर कहा ।
पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।