पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३५३

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वैसे ही तप्ति भी नहीं, इसी प्रकार विरक्ति भी नहीं। वह तो जैसे जीवन है, अनन्त प्रवाहयुक्त शाश्वत जीवन , अतिमधुर , अतिरम्य , अतिमनोरम ! जो कोई उसे पा लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है। " _ _ _ अम्बपाली ने दोनों मृणाल - भुज युवक के कण्ठ में डालकर कहा - “प्रियतम, मैंने उसे पा लिया। " " तो तुम निहाल हो गईं प्रिये, प्राणाधिके ! " “मैं निहाल हो गई, निहाल हो गई , अपना सुख, अपना आनन्द मैं कैसे तुम्हें बताऊं ? " उन्होंने आनन्द-विह्वल होकर कहा । " आवश्यकता नहीं प्रिये ! प्रेम की अथाह धारा में प्रेम की मन्दाकिनी मिल गई है , तुम्हारे अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति मैं अपने रक्त - प्रवाह में कर रहा हूं। " युवक ने धीरे से नीचे झुककर अम्बपाली के प्रफुल्ल होंठों का चुम्बन लिया । अम्बपाली ने भी चुम्बन का प्रत्युत्तर देकर युवक के वक्षस्थल में अपना मुंह छिपा लिया । कुछ देर बाद युवक ने कहा “ मौन कैसे हो गई प्रिये ? " " कुछ कहने को तो रहा ही नहीं अब। " “ सब - कुछ जान गईं ? ” " सब- कुछ! ” “ सब- कुछ समझ गईं ? " “ सब - कुछ। ” " तुम धन्य हुईं प्रिये , तुम अमर हो गईं! यवक ने धीरे से अम्बपाली को अपने बाहपाश से मुक्त करके कहा " तो अब विदा प्रिये, कल के सुप्रभात तक । " अम्बपाली का मुख सूख गया । उसने कहा " तुम कहां सोओगे ? " “सामने अनेक गुफाएं हैं, किसी एक में । " “ किन्तु .... ” “ किन्तु नहीं प्रिये ! ” युवक ने हंसकर एक बार अम्बपाली के होंठों पर और एक चुम्बन अंकित किया और भारी बर्छा कंधे पर रख, कंधे का वस्त्र ठीक कर , अंधकार में विलीन हो गया । अम्बपाली, देवी अम्बपाली उस भूमि पर जहां अभी -अभी युवक के चरण पड़े थे, अपना वक्ष रगड़ -रगड़कर आनन्द - विह्वल हो आंसुओं की गंगा बहाने लगीं ।