लेकर कहा - “ देवी अम्बपाली , यदि मैं यह कहूं कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं तो यह वास्तव में बहुत कम है ; मैं जो कुछ भी वाणी से कहूं अथवा अंग - परिचालन से प्रकट करूं वह सभी कम हैं , बहुत ही कम । फिर भी मैं एक बात कहूंगा देवी , अब और फिर भी सदैव याद रखना कि मैं तुम्हारा उपासक हूं , तुम्हारे अंग -प्रत्यंग का , रूप -यौवन का , तुम्हारी गर्वीली दृष्टि का , संस्कृत आत्मा का । तुम सप्तभूमि प्रासाद में विश्व की सम्पदाओं को चरण -तल से रूंधते हुए सम्राटों और कोट्याधिपतियों के द्वारा मणिमुक्ता के ढेरों के बीच में बैठी हुई जब भी अपने इस अकिंचन उपासक का ध्यान करोगी - इसे अप्रतिम ही पाओगी । " । युवक जड़वत् अम्बपाली के चरणतल में खिसककर गिर गया । अम्बपाली भी अर्ध सुप्त - सी उसके ऊपर झुक गई । वह पीली पड़ गई थीं , उनका हृदय धड़क रहा था । बड़ी देर बाद उसके वक्षस्थल पर अपना सिर रखे हुए अम्बपाली ने धीरे से कहा - “ तुमने अच्छा नहीं किया भद्र, मेरा सर्वस्व हरण कर लिया , अब मैं जीऊंगी कैसे यह तो कहो ? ” उन्होंने युवक के प्रशस्त वक्ष में अपना मुंह छिपा लिया और सिसक -सिसककर बालिका की भांति रोने लगीं । फिर एकाएक उन्होंने सिर उठाकर कहा __ “मैं नहीं जानती तुम कौन हो , मुनष्य हो कि देव , गन्धर्व, किन्नर या कोई मायावी दैत्य हो , मुझे तुमने समाप्त कर दिया है भद्र ! चलो , विश्व के उस अतल तल पर , जहां हम कल नृत्य करते - करते पहुंच गए थे, वहां हम - तुम एक - दूसरे में अपने को खोकर अखण्ड इकाई की भांति रहें । " “ सो तो रहने ही लगे प्रियतमे , कल उस मुद्रावस्था में जहां पहुंचकर हम लोग एक हो गए हैं , वहां अखण्ड इकाई के रूप में हम यावच्चन्द्र दिवाकर रहेंगे। अब यह हमारा तुम्हारा पार्थिव शरीर कहीं भी रहकर अपने भोग भोगे , इससे क्या ! और यदि हम इसकी वासना ही के पीछे दौड़ें तो प्रिये, प्रियतमे , मैं अधम अपरिचित तो कुछ नहीं हूं, पर तुम्हारा सारा वैयक्तिक महत्त्व नष्ट हो जाएगा । " वह धीरे से उठा , अपने वक्ष पर जड़वत् पड़ी अम्बपाली को कोमल सहारा देकर उसका मुख ऊंचाकिया । एक मृद्- मधुर चुम्बन उसके अधरों पर और नेत्रों पर अंकित किया और कहा - “ कातर मत हो प्रिये प्राणाधिके , तुम - सी बाला पृथ्वी पर कदाचित् ही कोई हुई होगी, मैं तुम्हें अनुमति देता हूं - अपनी विजयिनी भावनाओं को विश्व की सम्पदा के चूड़पर्यन्त ले जाना , मेरी शुभकामना तुम्हारे साथ रहेगी प्रिये ! " अम्बपाली के मुंह से शब्द नहीं निकला । आहार करके सुभद्र ने कुछ समय के लिए कुटी से बाहर जाने की अनुमति लेकर कहा “मैं सूर्यास्त से प्रथम ही आ जाऊंगा प्रिये, तुम थोड़ा विश्राम कर लेना । तब तक यहां कोई भय नहीं है। और सूर्यास्त के समय सन्ध्या के अस्तंगत लाल प्रकाश के नीचे गहरी श्यामच्छटा शोभा को निरखते हुए, वे दोनों असाधारण प्रेमी कुटी-द्वार पर स्थित शिलाखण्ड पर बैठे अपनी - अपनी आत्मा को विभोर कर रहे थे।
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