पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३४७

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99 . पीड़ानन्द जब देवी अम्बपाली की संज्ञा लौटी , तब कुछ देर तक तो वह यही न जान सकीं कि वह कहां हैं । दिन निकल आया था - कुटी में प्रकाशरेख के साथ प्रभात की सुनहरी धूप छनकर आ रही थी । सावधान होने पर अम्बपाली ने देखा कि वह भूमि पर अस्त -व्यस्त पड़ी हैं । वह उठ बैठी, कुटी में कोई नहीं था । उन्होंने पूर्व दिशा की एक खिड़की खोल दी । सुदूर पर्वतों की चोटियां धूप में चमक रही थीं , वन पक्षियों के कलरव से मुखरित हो रहा था , धीरे- धीरे उन्हें रात की सब बातें याद आने लगीं । वीणा वैसी ही सावधानी से उसी चन्दन की चौकी पर रखी थी । तब क्या रात उसने स्वप्न देखा था ? या सचमुच ही उसने नृत्य किया था ! उसे स्मरण हो आया, एक गहरी स्मृति की संस्कृति उदय हो रही थी । वही युवक आत्मलीन होकर वीणा बजा रहा था । क्या सचमुच पृथ्वी पर महाराज उदयन को छोड़ दूसरा भी एक व्यक्ति वैसी ही वीणा बजा सकता है ? तब कौन है यह युवक ? क्या यह संसार -त्यागी,निरीह व्यक्ति कोई दैवशाप - ग्रस्त देवता है, अथवा कोई गन्धर्व, यक्ष , असुर या कोई लोकोत्तर सत्त्व मानव - रूप धर इस वन में विचरण कर रहा है ! देवी अम्बपाली अति व्यग्र होकर उसी युवक का चिन्तन करने लगीं । क्या उन्होंने सम्पूर्ण रात्रि अकेले ही उस कुटी में उसी के साथ व्यतीत की है ? तो अब वह इस समय कहां है ? कहां है वह ? अम्बपाली एक ही क्षण में उस कुटी में उस युवक के अभाव को इतना अधिक अनुभव करने लगीं जैसे समस्त विश्व में ही कुछ अभाव रह गया हो । उनकी इच्छा हुई कि पुकारें - कहां हो , कहां हो तुम , अरे ओ, अरे ओ कुसुम - कोमल , वज्र - कठिन , तुमने कैसे मुझे आक्रान्त कर लिया ?..... देवी अम्बपाली विचारने लगीं, आज तक कभी भी तो ऐसा नहीं हुआ था , किसी पुरुष को देखकर , स्मरण करके जैसा आज हो रहा है । पुरुष - जाति -मात्र मेरी शत्रु है, मैं उससे बदला लूंगी । उसने मेरे सतीत्व का बलात् हरण किया है । जब से मैंने दुर्लभ सप्तभूमि प्रासाद में पदार्पण किया है, कितने सामन्त , सेट्टिपुत्र , सम्राट और राजपुत्र सम्पदा और सौन्दर्य लेकर मेरे चरणों से टकराकर खण्ड - खण्ड हो गए । क्या अम्बपाली ने कभी किसी को पुरुष समझा ? वे सब निरीह प्राणी अम्बपाली की करुणा और विराग के ही पात्र बनें । अचल हिमगिरि शंग की भांति अम्बपाली का सतीत्व अचल रहा , डिगा नहीं , हिला नहीं , विचलित हआ नहीं , वह वैसा ही अस्पर्श- अखण्ड बना रहा ......यह सोचते सोचते अम्बपाली गर्व में तनकर खड़ी हो गईं, फिर उनकी दृष्टि उस वीणा पर गई । वह सोचने लगीं -किन्तु अब यह अकस्मात् ही क्या हो गया ? वह अचल हिमगिरि - शृंग - सम गर्वीली अम्बपाली का अजेय सतीत्व आज विगलित होकर उस मानव के चरण पर लोट रहा है ? उन्होंने आर्तनाद करके कहा - “ अरे मैं आक्रान्त हो गई, मैं असम्पूर्ण हो गई , मैं निरीह नारी कैसे इस दर्पमूर्ति पौरुष के बिना रह सकती हूं? परन्तु वह मुझे आक्रान्त करके