पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३३४

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से ईर्ष्या कैसे कर सकती थी भला ! " युवराज स्वर्णसेन अप्रतिभ हो गए। उन्होंने कहा “मुझसे अपराध हो गया देवी , मुझे क्षमा करें । ” “यह काम सोच-विचारकर किया जाएगा , अभी यह मधुर कुरकुरा शूकर मांस खण्ड चखकर देखो। " उन्होंने हंसते -हंसते एक टुकड़ा स्वर्णसेन के मुख में ठंस दिया । हठात् अम्बपाली का मुंह सफेद हो गया और स्वर्णसेन जड़ हो गए। इसी समय एक भयानक गर्जना से वन -पर्वत कम्पायमान हो गए। हरी - हरी घास चरते हुए अश्व उछलने और हिनहिनाने लगे , पक्षियों का कलरव तुरन्त बन्द हो गया । परन्तु एक ही क्षण में स्वर्णसेन का साहस लौट आया । उन्होंने कहा - “ शीघ्रता कीजिए देवी , सिंह कहीं पास ही है। " उन्होंने अश्वों को संकेत किया, अश्व कनौती काटते आ खड़े हुए। अश्व पर अम्बपाली को सवार करा स्वयं अश्व पर सवार हो , धनुष पर शर सन्धान कर वे, सिंह किस दिशा में है, यही देखने लगे । अम्बपाली अभी भी भयभीत थी , अश्व चंचल हो रहे थे। अम्बपाली ने स्वर्णसेन के निकट अश्व लाकर भीत मुद्रा से कहा - "सिंह क्या बहुत निकट है ? " और तत्काल ही फिर एक विकट गर्जन हुआ , साथ ही सामने बीस हाथ के अन्तर पर झाड़ियों में एक मटियाली वस्तु हिलती हुई दीख पड़ी । अम्बपाली और स्वर्णसेन को सावधान होने का अवसर नहीं मिला। अकस्मात् ही एक भारी वस्तु अम्बपाली के अश्व पर आ पड़ी । अश्व अपने आरोही को ले लड़खड़ाता हुआ खड्ड में जा गिरा । इससे स्वर्णसेन का अश्व भड़ककर अपने आरोही को ले तीर की भांति भाग चला । स्वर्णसेन उसे वश में नहीं रख सके ।