पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३३२

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लल्लभट्ट ! ” वे दोनों देखते - ही - देखते आंखों से ओझल हो गए । थोड़ी ही देर में गहन वन आ गया । स्वर्णसेन ने अश्व को धीमा करते हुए कहा " कैसा शान्त -स्निग्ध वातावरण है ! ” " ऐसा ही यदि मनुष्य का हृदय होता ! " " तब तो विश्व के साहसिक जीवन की इति हो जाती। " “ यह क्यों ? " “ अशान्त हृदय ही साहस करता है देवी ! " " सच ? ” अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा। युवराज कुछ अप्रतिभ होकर क्षण - भर चुप रहे। फिर बोले - “ देवी , आपने कभी विचार किया है ? " "किस विषय पर प्रिया ? " "प्रेम की गम्भीर मीमांसाओं पर , जहां मनुष्य अपना आपा खो देता है और जीवन फल पाता है ? " " नहीं, मुझे कभी इस भीषण विषय पर विचार करने का अवसर नहीं मिला। " देवी ने मुस्कराकर कहा “ आप इसे भीषण कहती हैं ? " । “ जहां मनुष्य आपा खो देता है और जीवन- फल पाता है - वह भीषण नहीं तो क्या है ? " " देवी सम्भवतः उपहास कर रही हैं । " " नहीं भद्र , मैं अत्यन्त गम्भीर हूं। " अम्बपाली ने हठपूर्वक अपनी मुद्रा गम्भीर बना ली । स्वर्णसेन चुप रहे । दोनों अश्व धीरे - धीरे पर्वत की उस गहन उपत्यका में ठोकरों से बचते हुए आगे गहनतम वन में बढ़ने लगे । दोनों ओर के पर्वत - शृंग ऊंचे होते जाते थे और वन का सन्नाटा बढ़ता जाता था । सघन वृक्षों की छाया से छनकर सूर्य की स्वर्ण-किरणें दोनों अश्वारोहियों की मुखश्री की वृद्धि कर रही थीं । अम्बपाली ने कहा " क्या सोचने लगे युवराज ? " " क्या सत्य कह दूं देवी ? " “ यदि अप्रिय न हो । " “ साहस नहीं होता । " " अरे , ऐसे वीर युवराज होकर साहस नहीं कर सकते ? मैं समझती थी युवराज स्वर्णसेन परम साहसिक हैं । " “ आप उपहास कर सकती हैं देवी , पर मैं आपको प्यार करता हूं, प्राणों से भी बढ़कर। " " केवल प्राणों से ही ? " अम्बपाली ने हंस की - सी गर्दन ऊंची करके कहा । “विश्व की सारी सम्पदाएं भी प्राणों के मूल्य की नहीं देवी ! क्या मेरा यह प्यार नगण्य है ? " “ नगण्य क्यों होने लगा प्रिय ? "