92. मधुपर्व वीणा के तारों में औडव सम्पूर्ण के स्वर तैर रहे थे। सुनहरी धूप प्रासाद के मरकतमणि - जटित झरोखों और गवाक्षों से छन - छनकर नेत्रों को आह्लादित कर रही थी । अम्बपाली के आवास के बाहरी प्रांगण में रथ , हाथी , अश्व और विविध वाहनों का तांता लगा था । संभ्रान्त नागरिक और सामन्तपुत्र अपनी नई -निराली सज - धज से अपने - अपने वाहनों पर देवी अम्बपाली की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रांगण के भीतरी मार्ग में अम्बपाली का स्वर्णकलशवाला श्वेत कौशेय का महाघोष रथ आचूड़ विविधपुष्पों से सजा खड़ा था , उसमें आठ सैन्धव अश्व जुते थे , जिनकी कनौतियां खड़ी , थूथनी लम्बी और नथुने विशाल थे। वे स्वर्ण और मणिमालाओं के आभरणों से लदे थे। रथ के चूड़ पर मीनध्वज फहरा रही थी , वातावरण में जनरव भरा था । दण्डधर शुभ्र परिधान पहने दौड़ - दौड़कर प्रबन्ध -व्यवस्था कर रहे थे । हठात् गवाक्ष के कपाट खुले और देवी अम्बपाली उसमें अपनी मोहक मुस्कान के साथ आ खड़ी हुईं । नख से शिख तक उन्होंने वासन्ती परिधान धारण किया था , उनके मस्तक पर एक अतिभव्य किरीट था , जिसमें सूर्य की - सी कान्ति का एक अलभ्य पुखराज धक् - धक् दिप रहा था । कानों में दिव्य नीलम के कुण्डल और कण्ठ में मरकतमणि का एक अलौकिक हार था । उनकी करधनी बड़ी - बड़ी इक्कीस मणियों की बनी थी , जिनमें प्रत्येक का भार ग्यारह टंक था । वे माणिक्य उनकी देह - यष्टि में लिपटे हुए उस मधुदिवस के प्रभात की स्वर्ण- धूप में इक्कीस बालारुणों की छटा विस्तार कर रहे थे। उनकी घन - सुचिक्कण अलकें प्रभात की मन्द समीर में क्रीड़ा कर रही थीं । स्वर्णखचित - कंचुकी - सुगठित युगल यौवन दर्शकों पर मादक प्रभाव डाल रहे थे। करधनी के नीचे हल्के आसमानी रंग का दुकूल उनके पीन नितम्बों की शोभा विस्तार कर रहा था , जिसके नीचे के भाग से उनके संगमरमर के - से सुडौल चरण युगल खालिस नीलम की पैंजनियों से आवेष्टित बरबस दर्शकों की गति - मति को हरण कर रहे थे। इस अलौकिक वेशभूषा में उस दिव्य सुन्दरी अम्बपाली को देखकर प्रांगण में से सैकड़ों कण्ठों से आनन्द- ध्वनि विस्तारित हो गई । लोगों की सम्पूर्ण जीवनी शक्ति उनकी दृष्टि में ही केन्द्रित हो गई । फिर , ज्योंही अम्बपाली ने अपने दोनों हाथों की अञ्जलि में फूलों को लेकर सामन्त नागरिकों की ओर मृद- मन्द मुस्कान के साथ फेंका, त्योंही देवी अम्बपाली की जय , मधुपर्व की रानी की जय , जनपद- कल्याणी नगरवधू की जय के घोषों से दिशाएं गूंज उठीं । । दुन्दुभी पर चोटें पड़ने लगीं । वीणा में अब सम्पूर्ण अवरोह-स्वर वातावरण में बिखरे जा रहे थे, जिनमें दोनों मध्यम और कोमल निषाद विचित्र माधुर्य उत्पन्न कर रहे थे । नायक दण्डधर लल्लभट ने अपनी विशाल काया के भार को स्वर्णदण्ड के सहारे
पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३२८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।